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तवाचिन्तामणिः
चैवं स्वरूपात्स्वद्रव्याद्वा क्षेत्रस्यान्यता न स्यात् तद्व्यपदेशहेतोः परिणामविशेषस्य ततोऽन्य
त्वेन प्रतीतेरविरोधात् ।
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तां क्षेत्र प्रकरण में परम महासत्तारूप वस्तुका स्वकीय आत्मा ही अपना क्षेत्र है । क्योंकि वह परमवस्तु सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायोंमें व्यापक रहता है । उस स्वात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई क्षेत्र नहीं है । वास्तव स्वकीय आत्मा ही अपना क्षेत्र हो सकता है। गृह, ग्राम, प्रान्त, देश, आकाश तो यों ही व्यवहारसे गढ लिये गये क्षेत्र हैं । उस परमसत्त्वसे कथञ्चित् भिन्न आकाशरूप वस्तुका क्षेत्र भी स्वात्मा ही है, उक्त कथनसे यह बात स्पष्ट कह दी गयी है । क्योंकि वह आकाश महापरिमाणवाला अनन्तक्षेत्रमें फैला हुआ है । अनन्त संख्यावाले प्रदेशोंको धारनेके कारण उस आकाशसे लम्बा चौडा बडा कोई पदार्थ नहीं है । अतः आकाशका क्षेत्र स्वयंके अतिरिक्त दूसरा कोई (क्षेत्र) घटित नहीं होता है । व्यवहार और निश्चयसे वह स्वयं अपना क्षेत्र है, तथा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और काल इन पांच वस्तुओंका तो निश्चय नयसे स्वकीय अखण्डदेश अपना स्वरूप ही क्षेत्र है और व्यवहारनयसे लोकाकाश भी क्षेत्र है । उनसे भी न्यारे जीव आदिah व्याय भेद प्रभेदस्वरूप मनुष्य, तिर्यञ्च, देव, घट, पट, जल, विजयार्ध, सुमेरु, आदि बस्तुओंके यथायोग्य मनुष्यलोक, ऊर्ध्वलोक, आदि क्षेत्र समझ लेने चाहिये । हां ! इस प्रकार स्वरूप भाव अथवा स्वद्रव्यसे क्षेत्रकी भिन्नता न होगी यह न समझना । क्योंकि वस्तुमें उन उन भाव स्वरूप या स्वद्रव्य और स्वक्षेत्रोंके व्यवस्थापक न्यारे न्यारे विशेष परिणाम परस्पर में उनसे भिन्न होकरके प्रतीत हो हैं। जो कि परिणाम उन उनके नियत द्रव्य आदिके व्यवहार करादेनेमें कारण हैं, अतः कोई विरोध नहीं है । साढे तीन हाथ लम्बा चौडा देवदत्त अपने पूर्ण देश, देशांश, गुण, गुणांशोंमें तादात्म्य सम्बन्ध से व्यापक हो रहा है, यही उसका स्वरूप है । अनेक गुणोंका पिण्डरूप देश स्वद्रव्य है और साढे तीन हाथके विष्कम्भ क्रमसे किया गया देशांशस्वरूप ही स्वक्षेत्र है तथा ऊर्ध्वंश कल्पनारूप गुणांश पर्यायोंका पिण्ड ही स्वकाल है । एवं गुण, वर्तमानके परिणाम, अविभागप्रतिच्छेद, आदि स्वके भाव हैं ।
तथा स्वकालेऽस्ति परकाले नास्तीत्यपि न विरुद्धं, स्वपरकालग्रहणपरित्यागाभ्यां वस्तुनस्तत्त्वप्रसिद्धेरन्यथा कालसांकर्यप्रसंगात् । सर्वदा सर्वस्याभावप्रसंगाच्च ।
तिसी प्रकार स्वकीय कालमें वस्तु है दूसरेके कालमें नहीं है । उस प्रकार कथन करना भी विरुद्ध नहीं है। क्योंकि अपने कालका ग्रहण करने और दूसरे कालका हान करनेसे वस्तुको वस्तुपन सिद्ध हो रहा है । अन्यथा कालके संकर हो जानेका प्रसंग होगा। बालक यदि वृद्धपनेके समयोंकी अपेक्षा विद्यमान हो जाय तो वह बालक न रहेगा । बुड्ढा हो जायगा । इसी प्रकार बुड्ढा भी बालक हो जायगा । दूसरी बात यह है कि सभी कालोंमें सम्पूर्ण वस्तुओंके अभावका प्रसंग हो जायगा । जब कि कोई किसीका स्वकीय काल नियत नहीं है और वह परकीय कालके व्यावृत्त
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