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________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके तब तो हम क्या कहते हैं उसको समझलो ! जिससे कि पुनः शंका न होवे । हम वस्तुको स्वद्रव्यमें अस्ति और परद्रव्यमें नास्ति कहते हैं । द्रव्य और पर्याय तो वस्तुके अंश हैं। प्रमाण का विषय वस्तु है । वस्तुके एकदेशको जाननेवाली संग्रह नयसे सत्ता जानी जाती है । वह पूर्ण वस्तु उस संग्रहनयसे नहीं जानी जाती है। अन्य पर्यायोंके समान महासत्ता तो वस्तुका एक देश है । तिस कारण जीव वस्तु या पुद्गल, आकाश, आदि वस्तुएं अन्वयसे रहनेवाले जीवपन या पुद्गल आदिपनरूप अपने अपने द्रव्यमें विद्यमान हैं । अथवा अपने स्वभावभूत ज्ञान, सुख आदि या रूप, रस, अवगाह, आदि पर्यायोंमें विद्यमान हैं । किन्तु परद्रव्य, काल, आदिमें अथवा वर्त्तना आदि परकीय पर्यायस्वरूपों में वर्तमान नहीं हैं । तिस ही प्रकार परम व्यापक वस्तु अपने सत्ता मात्र द्रव्य में तथा जीव, पुद्गल, देव, घट, आदि भेद प्रभेदरूप अपने अंशस्वरूप पर्यायो में विद्यमान है । दूसरोंके द्वारा झूठ मूंठ गढ लिये गये सर्वथा एकान्तरूप आत्मा, क्षणिक नील आदि पर्यायोंमें कैसे भी नहीं विद्यमान है । इस प्रकार सत्तामात्र तत्त्वमें भी जैन सिद्धान्त के अनुसार अस्तिनास्तिपन निर्दोष होकर घट जाते हैं अन्यथा उसकी व्यवस्था नहीं हो सकती । इस प्रकार वस्तुका स्वद्रव्य और स्वकीय भाव सिद्ध कर दिया गया है । स्वलक्षण, आदि द्रव्य और ४२२ तथा स्वक्षेत्रेऽस्ति परक्षेत्रे नास्तीत्यपि न विरुध्यते स्वपरक्षेत्र प्राप्तिपरिहाराभ्यां वस्तुनो वस्तुत्वसिद्धेरन्यथा क्षेत्र संकर प्रसंगात् । सर्वस्याक्षेत्रत्वापत्तेश्च । न चैतत्साधीयः प्रतीतिविरोधात् । तिस प्रकार वस्तु स्वक्षेत्र में है दूसरे क्षेत्रमें नहीं है । यह कहना भी विरुद्ध नहीं है । क्योंकि अखण्डित अनेक देशवाली या अखण्डित एकदेशरूप वस्तुके तिर्यगंश कल्पनारूप स्वकीय क्षेत्रकी प्राप्तिसे और परकीय क्षेत्रके परित्याग कर देनेसे वस्तुका वस्तुपना सिद्ध हो रहा है । दूसरे प्रकार से मानोगे तो स्वक्षेत्रके अस्तिपन विना सबके क्षेत्रोंके संकर हो जानेका प्रसंग होगा । तथा सम्पूर्ण पदार्थोंको क्षेत्ररहितपनेकी आपत्ति हो जायगी, अर्थात् परका क्षेत्र जब स्वके क्षेत्रमें ही प्रविष्ट हो जायगा तो परका क्षेत्र रहा ही नहीं और चालिनी न्यायसे स्वका क्षेत्र भी इस प्रकार नष्ट हो गया तब क्षेत्रपना ही नष्ट हो जायगा, सभी वस्तुएं क्षेत्ररहित हो गयी । किन्तु यह क्षेत्ररहितपना प्रशस्त नहीं है । क्योंकि प्रतीतियोंसे विरोध आ रहा है । प्रत्येक वस्तुके अपने अपने क्षेत्र प्रतीत हो रहे हैं । बाल, गोपाल, पशु, पक्षी भी अपने अपने क्षेत्रोंका और परक्षेत्रोंका ग्रहण, परित्याग, करते हुए अनुभव कर रहे हैं । तत्र परमस्य वस्तुनः स्वात्मैव क्षेत्रं तस्य सर्वद्रव्यपर्यायव्यापित्वात् तद्व्यतिरिक्तस्य क्षेत्रस्याभावात् तदपरस्य वस्तुनो गगनस्यानेन स्वात्मैव क्षेत्रमित्युक्तं तस्यानन्त्यात् क्षेत्रान्तराघटनात् । जीवपुद्गलधर्माधर्मकालवस्तूनां तु निश्चयनयात् स्वात्मा व्यवहारनयादाकाशं क्षेत्रं ततोऽप्यपरस्य वस्तुनो जीवादिभेदरूपस्य यथायोगं पृथ्व्यादिक्षेत्रं प्रत्येयम् । न •
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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