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तत्वार्थ लोकवार्तिके
प्रतिप्रत्ति न होनेका प्रसंग होगा । घटको लानेवाला मनुष्य अन्य कपडा, भैंसा, पुस्तक, आदिका निषेध करता हुआ ही अभीष्ट घटको लाता है । यदि विधिवादी यों कहें कि शब्द द्वारा निषेधकी गौणरूपसे ही प्रतिपत्ति होती है, प्रधानरूपसे तो निषेधकी प्रतीति कभी नहीं होती है, सो यह कहना भी निस्सार है। क्योंकि जो निषेध सभी स्थलोंमेंसे कहीं भी और सभी कालोंमेंसे कभी तथा सभी प्रकारों में किसी भी प्रकार प्रधानरूप करके नहीं जाना गया है उसका गौणपना भी असिद्ध है। अपने स्वरूप करके जो कहीं मुख्यपनेसे जान लिया गया है वह अन्यत्र भी विशेषण, गौणपन, आदि धर्मोसे व्यवहृत होता हुआ देखा जा सकता है । मुख्यरूपसे 'प्रसिद्ध अग्नि या बैलका किसी बालक अध्यारोप किया जा सकता है। अन्यथा नहीं ।
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प्रतिषेधप्रधान एव शद्ध इत्यनेनापास्तम् ।
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कथन से खण्डित हो रही है । यह बात
प्रधानरूपसे निषेध करनेको ही शब्द कहता यह एकान्त भी इस जाता है। क्योंकि प्रायः सभी शद्वोंसे विधि और निषेध दोनोंकी प्रतीति हो 'दूसरी है कि कहीं विधिका विशेषण निषेध है और कचित् निषेधका विशेषण विधि है । अतः द्वितीयं भंगका एकान्त ठीक नहीं ।
" क्रमादुभयप्रधान एव शद्ध इत्यपि न साधीयः, तस्यैकैकप्रधानत्वप्रतीतेरप्यबाधितत्वात् ।
क्रमसे विधि और निषेध दोनोंको ही प्रधानरूपसे शब्द कहता है । यह भी एकान्तरूपसे कहना अधिक अच्छा नहीं है । क्योंकि उस शब्दकी एक एकको प्रधानपने से कहने की प्रतीति भी बाधारहित हो रही है। “ स्याध्यायं कुर्यात् ” तहां स्वाध्यायकी विधि तो प्रधान है और वृथा क्रीडन आदिका निषेध गौण है । मधु नाश्नीयात् ” यहां मधुभक्षणका निषेध प्रधान है । शुद्ध प्रासुक पदार्थके सेवनकी विधि गौण है । अतः उभयआत्मक तृतीय भंगका भी एकान्त उचित नहीं । सकृद्विधिनिषेधात्मनोऽर्थस्यावाचक एवेति च मिथ्या, तस्यावाच्यशद्वेनाप्यवाच्यत्वप्रसक्तेः ।
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एक बार में विधि और निषेधरूप दोनों अर्थका कथन करनेवाला कोई वाचक शब्द्व है हीं नहीं । अतः शब्द अवाचक ही है। यह कथन भी झूठा है। क्योंकि यदि अर्थ सभी प्रकारसे अवाच्य है तो अवाच्य शद्वसे भी उसको अवाच्यपनेका प्रसंग होगा । अन्यथा शब्द उसका अवाचक नहीं कहा जा सकेगा । अतः शङ्ख वाचक सिद्ध हो गया है। अर्थात् अर्थ जब वाच्य है उसका चक है । अतः अवक्तव्य नामका चतुर्थभङ्ग भी एकान्तरूपसे नहीं व्यवस्थित हुआ । 1. विध्यात्मनोऽर्थस्य वाचक एवोभयात्मनो युगपदवाचक एवेत्येकान्तोऽपि न युक्तः, प्रतिषेधात्मनः उभयात्मनश्च सहार्थस्य वाचकत्वा वाचकत्वाभ्यां शद्वस्य प्रतीतेः ।
शब्द
"शब्द विधिस्वरूप अर्थका वाचक ही है और विधि, निषेध द्वयस्वरूप अर्थका एक समय में वाचकही है। इस प्रकार पांचवे भंगका एकान्त करना भी युक्त नहीं है। क्योंकि प्रतिषेधस्वरूप