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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः किन्तु सुखदुःखोंका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है । शुद्ध निर्विकल्पक आत्माका स्वयं अनुभव तो हो सकता है। किन्तु सहस्र गलोंसे भी कोई उपदेष्टा उसका उपदेश नहीं कर सकता है। श्रीपूज्यपाद स्वामीने कहा है कि " यत्परैः प्रतिपद्योऽहं, यत्परान् प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे, यदहं निर्विकल्पकः "। इससे सिद्ध होता है कि ज्ञान ही समझा और समझाया जा सकता है । ज्ञानोंमें भी बहुभाग ज्ञान अवक्तव्य हैं । " पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो। ” गोम्मटसारमें कहा है कि प्रज्ञापनीय ( अवक्तव्य ) पदार्थोका अनन्तवां भाग ज्ञान द्वारा समझाने योग्य है और समझाने योग्यमेंसे अनन्तवां भाग शास्त्रोंमें लिखा जा सकता है । वक्ताके हृदयमें जितना ज्ञान है उतना वह सिर, हाथ, आदिकी चेष्टा या भावपूर्ण शद्वोंके उच्चारण, सुनियोजनसे समझा जा नहीं सकता है और जितना चेष्टा, शब्द बोलना, आरोह, अवरोह, आंखोंका स्पन्दन, अतिशययुक्तभाव आदिसे समझा जा सकता है, उतना लिखा नहीं जा सकता है। तभी तो वक्ताके उपदेशको सुननेके लिये दूर दूरके मनुष्य पहुंचते हैं। पत्रापर लिखे हुए उनके भाषण पढ लेनेसे उतना सन्तोष नहीं हो पाता है। बडी प्रसन्नतासे कहना पडता है कि आत्माओंमें यह स्वभाव बहुत अच्छा है कि थोडासा निमित्त पाकर क्षयोपशमके अनुसार अपने आप बहुत ज्ञानको उत्पन्न कर लेता है। सभी श्रुतज्ञान शब्दोंके ही अधीन होय ऐसा नियम नहीं। तभी तो कचित् गुरुके ज्ञानसे शिष्यका ज्ञान बढकर हो जाता है। किन्तु यहां गुरुकी कृतज्ञता शिष्यको विस्मरणीय नहीं होनी चाहिये । अभव्योंके उपदेशसे असंख्य विनीत भव्य जीव कैवल्य प्राप्त कर सिद्ध हो गये । पांच ज्ञानोंमें मति, अववि, मनःपर्यय और केवलज्ञान ये चार तो अवाच्य हैं। दूध, मोदक, मिश्री, आदिकके रासन प्रत्यक्षोंका कथन नहीं हो सकता है आदि । हां, अकेले श्रुतज्ञानके भी अल्पभागका प्रतिपादन हो सकता है। फिर भी यहां पांचों ज्ञानोंको यथायोग्य शद्वात्मक इस अपेक्षासे कह दिया है कि वे भी अपने अविनाभावी श्रुतज्ञानोंके साथ समझे समझाये जा सकते हैं । साझेदारीमें एकका धर्म दूसरेमें भी व्यवहृत हो जाया करता है । आत्माके जब सभी गुणोंमें भाईचारा है तो उसके ज्ञानोंमें समानामिहार होना अवश्यंभावी है। शद्रो विधिप्रधान एवेत्ययुक्तं, प्रतिषेधस्य शद्वादपतिपतिप्रसंगात् । तस्य गुणभावे. नैव ततः प्रतिपत्तिरित्यप्यसारं, सर्वत्र सर्वदा सर्वथा प्रधानभावेनापतिपत्रस्य गुणभावानु. पपत्तेः। खरूपेण मुख्यतः पतिपत्रस्य कचिद्विशेषणत्वादिदर्शनात् । ब्रह्माद्वैतवादीका कथन है कि शद्वको सुनकर श्रोताकी पदार्थोके विधान करनेमें ही प्रवृत्ति होती है । “ घटमानय " को सुनकर श्रोता घटको ले आता है । " गां नय " को सुनकर गौ को ले जाता है । अतः भाव पदार्थकी विधिको ही प्रधानतासे कहनेवाले सभी शब्द हैं। बाप जैनोंने उक्त वार्तिकमें विधि और निषेधको कहनेवाले सभी शब्दोंको कैसे कहा ! आचार्य बोलते हैं कि यह कहना अयुक्त है । क्योंकि शब्दके द्वारा विधि होना ही माना जायगा तो शबसे लिप की 61
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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