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तार्थोकवार्तिके
द्वारा मृत मनुष्यको जाननेपर या नष्ट पदार्थका स्मरण करनेपर एवं ज्योतिष या निमित्तशास्त्रसे भविष्य चन्द्र - प्रहण, इष्टप्राप्ति आदिको जान लेनेपर ज्ञानमें उन पदार्थोंका आकार नहीं पड रहा है । फिर भी वे ज्ञान प्रमाण माने गये हैं। वर्तमानमें वे पदार्थ होते तो अपनी छाया ज्ञानमें डाल सकते
। अतः ज्ञानको प्रतिबिम्बरहित माननेसे ही प्रतीतियोंका उल्लंघन नहीं होता है। बौद्धोंका ज्ञानके स्वरूप में भी तदाकारता होनेसे ही ज्ञानशरीरका अधिगम हुआ है, यह कहना भी युक्तिपूर्ण नहीं है। क्योंकि वह तदाकारता प्रतिविम्ब्य और प्रतिबिम्बक दोमें रहनेवाला धर्म है। अकेले ज्ञानमें तदाकारता नहीं बन सकती है । कल्पना की गयी तदाकारताका भी एक ज्ञानमें रहना असम्भव है । यदि एक में भी सारूप्यकी कल्पना करोगे, तो अनवस्था हो जायगी । प्रतिबिम्बक दर्पण में प्रतिविम्ब्य दर्पणका यदि आकार पड जाना माना जायगा तो प्रतिबिम्ब्य दर्पण भी तो दर्पण है । वह प्रतिबिम्बक बन बैठेगा । पुनः उसमें प्रतिबिम्ब्य दर्पणके शरीरका आकार माना जायगा । यह क्रम दूरतक अमर्यादित होकर चला जायगा । इस ही प्रकार ज्ञानके शरीर में स्वयं ज्ञानका आकार पड जानेसे अनवस्था हो जायगी। दूसरी बात यह है कि इस प्रकार जब ज्ञान अपने डील की 'व्यवस्था नहीं कर सकेगा तो भला उससे पदार्थोंकी सम्वित्ति होना कैसे सम्भवेगी । आप बौद्ध जो यह मान बैठे हैं कि " अर्थेन घटयत्येनां नहि मुक्त्वार्थरूपतां तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ” चेटीसमान सविकल्पक बुद्धि इस निर्विकल्पक बुद्धिस्वरूप नववधूको अर्थ नामक दूल्हा के साथ सम्बन्ध करा देती है । वह सम्बन्ध अर्थका आकार पड जानेको छोडकर अन्य कोई नहीं है, उस अर्थाकारसे प्रमेयका परिज्ञान होजाता है, अतः पडगया अर्थाकार ही प्रमाण है । यों चेतन ज्ञानका अचेतन घट आदिकके साथ यदि कोई सम्बन्ध है तो वह तदाकारता ही है । सो यह आपका मानना समुचित नहीं है । स्वावरणके क्षयोपशम या क्षयसे इस सविकल्पक बुद्धिको अपने विषय के साथ सम्बन्ध करा देनेवाले प्रमाणके माननेपर कोई दोष नहीं आता है । अर्थात् घटका ज्ञान घटको ही जानता है । उसका कारण यही है कि वह घटावरण कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ है । हाटमें गेहूं, चावल, फल, वस्त्र, आदि अनेक भोग उपभोगके पदार्थ पडे हुए हैं । उन सर्वथा भिन्न पदार्थोंमेंसे देवदत्त के भोगनेमें वे ही आसकते हैं जिनका कि देवदत्तके पुण्य, पापसे सम्बन्ध है । प्रत्येक गेहूं, तन्तु या घृत, दूध, पानीकी बूंदमें भोक्ताके अदृष्टका सम्बन्ध ही नियामक है। तभी तो वे नियत पदार्थ ही देवदत्तके पास आजाते हैं । अन्य नहीं आते हैं। लाखों कोस दूर पडी हुयी वस्तुका यदि हमको भोग करना है तो वह हमारे पास कथमपि आजायगी । कोई चोर, डाकू, कीट, बिगाड न सकेगा । पदार्थोंके परिणमनोंका पुण्य पापसे घनिष्ठ सम्बन्ध है । ज्ञानका भी ज्ञेयके साथ स्वावरण क्षयोपशम द्वारा विषयविषयिभाव सम्बन्ध हो रहा है । पतिपत्नी, या देवदत्त और धनके स्वस्वामिसम्बन्धमें भी तो कोई तदाकार सम्बन्ध नहीं है । तैसे ही प्रमाणका भी 1 अर्थके साथ तदाकार होना कोई योजक सम्बन्ध नहीं है । तिस कारण बौद्धोंकी मानी गयी तदा
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