________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
१८९
जायगा तो तदाकारके द्वारा विषयव्यवस्था करने के नियमका व्यभिचार हो जायगा । देखिये, ज्ञानमें क्षणिकत्वका आकार है, किन्तु वह उसका व्यवस्था करानेवाला नहीं माना गया है।
न तदाकारत्वात्तव्यवस्थापकत्वं साध्यते । किं तर्हि तब्यवस्थापकत्वात्तदाकारत्वमिति चेन्न, स्वरूपव्यवस्थापकत्वेनानेकान्तात् ।
बौद्ध कहते हैं कि हम घटका आकार लेनेसे घटज्ञान घटविषयकी व्यवस्था करा देता है । यों ज्ञानमें तदाकारपनेसे तत्की व्यवस्था करादेनापनको नहीं साधते हैं तब तो क्या कहते हैं । सो पहिले सुन लो । तत्की व्यवस्था करा देनेसे ही ज्ञान तत्के आकारको धारण करनेवाला है। अतः उक्त व्यभिचार नहीं होता है । आचार्य कहते हैं कि पूर्वोक्त व्याप्तिको नहीं माननेसे क्षणिकत्व आदिका व्यभिचार तो टल गया। किन्तु ज्ञान जिस पदार्थकी व्यवस्था करता है उसका आकार अवश्य लेता है । तुम्हारी यह भी व्याप्ति ठीक नहीं है। क्योंकि फिर भी ज्ञानके द्वारा अपने स्वरूपकी व्यवस्था करादेनेपनसे व्यभिचार दोष लग जायगा। भावार्थ-स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अपने ज्ञान स्वरूप शरीरका व्यवस्थापक तो है । किन्तु उस ज्ञानमें अपना प्रतिबिम्ब नहीं पड़ा हुआ है। अभिमुख पदार्थका प्रतिबिम्ब पडा करता है, स्वयं दर्पणका अपनेमें अपना प्रतिबिम्ब नहीं पड सकता है, ज्ञानका भी ज्ञानमें प्रतिबिम्ब नहीं पड सकता है । बौद्ध भी ऐसा मानते हैं । अतः व्यभिचार स्थल उनके अनुसार ही प्रसिद्ध है।
प्रमाणं योग्यतामात्रात्खरूपमधिगच्छति। यथा तथार्थमित्यस्तु प्रतीत्यनतिलंघनात् ॥ ३५॥ खरूपेऽपि च सारूप्यान्नाधिगत्युपवर्णनम् । युक्तं तस्य द्विनिष्ठत्वात् कल्पितस्याप्यसम्भवात् ॥ ३६ ॥ कल्पने वानवस्थानात् कुतः सम्वित्तिसम्भवः । खार्थेन घटयत्येनां प्रमाणे स्वावृतिक्षयात् ॥ ३७॥ नायं दोषस्ततो नैव सारूप्यस्य प्रमाणता । नाभिन्नोधिगमस्तस्मादेकान्तेनेति निश्चयः ॥ ३८ ॥
तदाकार न होते हुए भी प्रमाणज्ञान केवल योग्यतासे जैसे अपने स्वरूपको ठीक जान लेता है, तैसे ही केवल योग्यतासे ही अर्थको भी जान लेता है, ऐसा मान लो ! प्रतीतिके अनुसार वस्तु व्यवस्था मानी जाती है । ज्ञानमें विषयोंका आकार माननेसे प्रतीतिका उल्लंघन होता है । स्मृतिके