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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
पदार्थोसे पृथग्भूत अगोव्यावृत्तिरूप गौ है । अतः अगोव्यावृत्ति ही गोपना है। प्रकृत गो वस्तुसे पृथग्भूत अनन्त पदार्थोकी ओरसे भिन्नपनेके न्यारे न्यारे स्वभावोंका बोझ वस्तुके शिरपर व्यर्थ क्यों लादा जाय ? प्रकरणमें सारूप्य प्रमाण है और अधिगम फल है। ये सब संवेदनस्वरूप हैं । इसका अभिप्राय यह है कि वस्तुतः अंशोंसे रहित माने गये संवेदनमें भी सारूप्यसे भिन्न असारूप्यकी पृथग्भूततासे प्रमाणभूतसारूप्यका व्यवहार हो जाता है। और अनधिगमकी व्यावृत्तिसे अधिगमरूप फलका व्यवहार हो जाता है । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्धोंका कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि दरिद्रमें भी अराज्यकी व्यावृत्तिसे राजापने और अनिन्द्रपनेकी व्यावृत्तिसे इन्द्रपन इत्यादि व्यवहार हो जानेका प्रसंग होगा । बौद्धोंके मतानुसार व्यावृत्ति तुच्छ पदार्थ माना गया है। वह सर्वत्र सुलभतासे मिल जाता है। उनके यहां वस्तुगत स्वभावोंके अनुसार चलनेवाली व्यावृत्तियां नहीं मानी गयी हैं। अग्निमें जैसे अनुष्णव्यावृत्ति है वैसे ही उष्णव्यावृत्ति भी है। इसमें वास्तविक उष्णपन और शीतपनकी कोई अपक्षा नहीं रखी गयी है । तिस ही के सदृश दरिद्रपुरुषमें जैसे अदरिद्रव्यावृत्ति है वैसे ही राजारहितपनेकी भी व्यावृत्ति है । निर्धनता और प्रभुतारूप परिणामोंकी अपेक्षा नहीं है । तैसा होनेपर दरिद्रमें भी राजापनेका व्यवहार हो जाना चाहिये । तुच्छ पदार्थोंमें कोई बोझ नहीं होता है । चाहे जिस वस्तुमें चाहे कितने भी असंख्य तुच्छ पदार्थ लादे जा सकते हैं। बौद्धमतानुसार तुच्छ पदार्थोंमें कोई विरोध भी नहीं पडता है ।
यदि पुनस्तत्र राज्यादेरभावात्तव्यावृसिरसिद्धा तदा संवेदनस्य सारूप्यादिशून्यस्वात् कथमसारूप्यादिव्यावृत्तिः ? यतस्तन्निबन्धनं सारूप्यकल्पनं तस्यात्र स्यात् । ततो न साकारो बोध:प्रमाणम् ।
यदि फिर बौद्ध यों कहे कि उस दरिद्रमें वस्तुतः राजापन, इन्द्रपन, पण्डिताई आदिका अभाव है इस कारण अराज्यव्यावृत्ति या अनिन्द्रव्यावृत्ति उसमें सिद्ध नहीं होती हैं। आचार्य समझाते हैं कि तब तो बहुत अच्छा हुआ, आप वस्तुधर्मोके अनुसार व्यावृत्तियोंको मानने लग गये। किन्तु आपका निरंश संवेदन तो सारूप्य, अधिगम, आदि स्वभावोंसे शून्य है । अतः असारूप्य व्यावृत्ति या अनधिगम व्यावृत्ति भी उसमें कैसे सिद्ध मानी जा सकती है ? जिससे कि उन व्यावृत्तियोंको कारण मानकर उस संवेदनको प्रमाणरूप सारूप्यकी और अधिगमरूप फलकी कल्पना करना यहां हो सके । तिस कारण सिद्ध होता है कि बौद्धों द्वारा माना गया दर्पणके समान विषयोंके आकारको धारण करनेवाला ज्ञान प्रमाण नहीं है । आकारका अर्थ स्व और अर्थका विकल्प करना है, ऐसे साकार ज्ञानको तो हम जैन प्रमाण मानते हैं । यदि आकारका अर्थ प्रतिबिम्बको ग्रहण करना है तो ऐसे साकार ज्ञानको हम प्रमाण नहीं मानते हैं। क्योंकि ऐसी दशामें स्मृतिज्ञान और सर्वज्ञका ज्ञान प्रमाण न हो सकेगा। ज्ञानको साकार माननेमें और भी अनेक दोष आते हैं । पुद्गलका विवर्त माना