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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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_कालादयोऽनेनैवेच्छाहेतवो विध्वस्ताः, तेषां सर्वकार्यसाधारणकारणत्वाच्च नेच्छाविशेषकारणत्वनियमः।
विशिष्ट समय, विलक्षण क्षेत्र, आकाश आदि पदार्थ उक्त इच्छाके सहकारी कारण हो जाते हैं, यह बात भी इस व्यभिचार दोष हो जानेके कारण ही खण्डित कर दी गयी है। क्योंकि वे काल आदिक तो सम्पूर्ण कार्योंके प्रति साधारण कारण हैं । अतः उनके साथ हेय, उपादेयकी विशिष्ट इच्छाके कारणपनेका नियम नहीं हो सकता है । जो सभी कार्योंके साधारण कारण हैं वे विशिष्ट कार्यके होनेमें नियामक नहीं हो सकते हैं।
खोत्पत्तावदृष्टविशेषादिच्छाविशेष इति चेत्, भावादृष्टविशेषाद् द्रव्यादृष्टविशेषाद्वा ? प्रथमकल्पनायां न तावत् साक्षात् भावादृष्टस्यात्मपरिणामस्येच्छाव्यभिचारित्वात् । परम्परया चेत्तर्हि द्रव्यादृष्टादेव साक्षादिच्छोत्पत्तिस्तच्च द्रव्यादृष्टं मोहनीयाख्यं कर्म पौद्गलिकमात्मपारतन्त्र्यहेतुत्वादुन्मत्तकरसादिवदिति मोहकार्यमिच्छा कथममोहानामुद्भवेत् ? यतस्तल्लक्षणं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तेषां स्यात् । तदभावे न सम्यग्ज्ञानं तत्पूर्वकं वा सम्यक्चारित्रमिति क्षीणमोहानां रत्नत्रयापायान्मुक्त्यपायः प्रसज्येत । ततस्तेषां तद्व्यवस्थामिच्छता नेच्छा श्रद्धानं वक्तव्यम् ।
पूर्वपक्षवाले कहते हैं कि अपनी उत्पत्तिमें विशेष पुण्य, पापसे विशिष्ट इच्छाके उत्पन्न होनेका नियम कर लिया जावेगा । जैसे कि विशिष्ट ज्ञानके होनेका नियामक विशिष्ट क्षयोपशम है । । या रोगी नीरोग, धनी निर्धन, मूर्ख पण्डित, आदिकी व्यवस्था करनेवाला अन्तरंग पुण्य पाप कर्म माना जाता है । संसारके सभी विशेष कार्योंमें अदृष्ट नियामक है । ग्रंथकार बोलते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तो हम पूंछते हैं कि कर्मोके उदयसे होनेवाले अज्ञान, लोभ, असाता, सुभगता, साता रूप सुख, राग, आदि जो कि आत्माके विभाव परिणाम माने गये हैं, ऐसे भावकर्म विशेषसे इच्छाकी उत्पत्ति मानोगे या पौद्गलिक द्रव्यकर्मविशेषसे इच्छा होनेकी व्यवस्था करोगे ? बताओ। तिनमें पहिली कल्पना करनेपर तो भाव कोका और इच्छाका अव्यवहितरूपसे कार्यकारणभाव होना ठीक नहीं पडेगा। क्योंकि भावकर्म आत्माका परिणाम है, वह इच्छाके साथ व्यभिचारी है अर्थात् आत्मामें कर्मका फल होनेपर अव्यवहित उत्तरकालमें कभी कभी इच्छा उत्पन्न होती हुयी नहीं देखी जाती है और कभी कभी इच्छाके अनुकूल कर्मका उदय स्थूलरूपसे न होनेपर भी इच्छा उत्पन्न हो जाती है। इच्छा स्वयं भाव है । वह द्रव्य कर्मोदयका साक्षात् कार्य है। भावंकर्म का परम्परासे कार्य औदायिक भाव हो सकता है । साक्षात् कार्य नहीं । भावकर्मसे पौद्गलिक द्रव्यकर्मका बंध होगा। उसके उदय कालमें इच्छा उत्पन्न हो सकती है। वस्तुतः विचारा जाय तो इच्छाकी उत्पत्तिमें प्रधान कारण आत्माका पुरुषार्थ माना गया है । दैव गौण कारण है। यदि अव्यवहितरूपसे कार्यकारण भाव न मानकर भावका इच्छाके साथ परम्परासे कार्यकारणभाव मानोगे तब तो द्रव्यकर्मसे ही अव्य.