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तत्त्वार्थचिन्तामाणः ।
सर्व ही मनस्वी जीवोंके सनका कार्य इच्छा नहीं है किन्तु सम्यग्ज्ञानकी अपेक्षा रखनेवाले मनरूप कारणका कार्य विशिष्ट श्रद्धा करना है । अतः सभी मनस्वियोंके हेय उपादेवकी इच्छा होनेका प्रसंग नहीं है। ऐसा कहोगे सो भी ठीक नहीं है। क्यों कि किन्हीं किन्ही मिथ्यादृष्टी जीवोंके मिथ्याज्ञानके होते हुए भी उदासीन अवस्था हो जानेपर हेय पदार्थोंमें ग्रहण करनेकी अभिलाषा नहीं देखी जाती है और ग्रहण करने योग्य पदार्थो में छोडनेकी इछा नहीं जानी जा रही है अर्थात् मिथ्याज्ञानके होते हुए भी वे उदासीन अन्य लोग झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि छोडने योग्य भावोंमें छोडनेकी इच्छा रखते हैं और ग्रहण करने योग्य ब्रह्मचर्य, सत्संगति, उपेक्षा आदि भावोंमें ग्रहण करनेकी इच्छा रखते हैं। अतः सम्यग्ज्ञानकी अपेक्षा रखनेवाले मनके साथ इच्छाका कार्य कारण भाव बनाने में व्यतिरेक व्यभिचार आता है। तथा दूसरे सम्यग्दृष्टी धनी कुटुम्बी श्रावकोंके सम्यग्ज्ञान के होनेपर भी रागद्वेषकी तीव्रता होनेपर छोडने योग्य कुटुम्ब, धन और आरम्भसे हुई हिंसा तथा सूक्ष्म झूठ, आदिमें त्यागनेकी इच्छा नहीं है और ग्रहण करने योग्य दीक्षा लेना, अखण्ड ब्रह्मचर्य, अचौर्य महाव्रत, शुक्लध्यान आदिमें ग्रहण करनेकी इच्छा नहीं देखी जाती है। इसलिए कारणके होनेपर भी कार्यके न होनेसे इच्छा और ज्ञानापेक्ष मनके कार्यकारण भावमें अन्वय व्यभिचार भी हुआ।
विषयविशेषापेक्षान्मनसस्तदिच्छाप्रभव इत्यपि न युक्तं, तदभावेऽपि कस्यचिदिच्छोत्पत्तेस्तद्भावेऽपि चेच्छानुद्भवात् ।।
यहां कोई यों कहे कि विशेष विषयोंकी अपेक्षा रखनेवाले मनसे उस इच्छाकी उत्पत्ति होती है अर्थात् संसारसे वैराग्य करानेवाले विलक्षण विषयोंका सहकारी रखते हुए मनःसे वह श्रद्धानरूप इच्छा उत्पन्न हो जाती है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि यह भी कहना युक्तियोंसे रहित है । क्यों कि किसीके उस कारणके न होते हुए भी इच्छा उत्पन्न हो जाती है और कारणके होनेपर भी अन्य किसी जीवके वह इच्छा उत्पन्न नहीं होती है । यहां भी अन्वयव्याभिचार और व्यतिरेकव्यभिचार दोष विद्यमान हैं। सांसारिक विषयोंमें उपेक्षा [ उदासीन ] रखनेवाले मनसे इच्छाकी उत्पत्ति मानने पर भी उक्त दोनों व्यभिचार दोष हो जाते हैं। कभी कभी किसी पुण्यशाली राजा, महाराजाको वैराग्य हो जाने पर भी धर्मकी, राज्यकी और कुटुंबकी तथा धर्मायतनोंकी व्यवस्था करनेके लिए गृहस्थअवस्थामें रुका रहना पडता है । इनका ठीक प्रबन्ध हो जानेपर वे जिनदीक्षा को धारण करते हैं । राज्य आदिका सञ्चालन करते हुए भी पांचवां गुणस्थान बना रहता है। किन्तु मुनि अवस्थामें तीव्र शल्यके हो जानेपर छटवां सातवां तो दूर रहा, पांचवां चौथा गुणस्थान भी नहीं रक्षित रहता है। तथा बाहुबलिस्वामीके संपूर्ण साम्राज्यका विजय करनेपर भोगोपभोग हो जानेसे एकदम इतना वैराग्य होगया कि पुत्रको राज्य देना आदि व्यवस्थाके लिए भी इच्छा न हुई और तत्क्षण महाव्रती बन गये।