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________________ ३६६ तत्वार्यलोकवार्तिके संमत्ययसिद्धिः । सोयं सकलवस्तुविप्रतिपत्तिनिराकरणसमर्थात् प्रमाणाद्वस्त्वेकविमतिपत्तिनिरसनसमर्थ. समयमभ्यर्हितं ब्रुवाणो न न्यायवादी। ___ व्याख्या इस प्रकार है नैयायिकका आक्षेप है कि प्रमाणसे नय अधिक पूज्य है ( प्रतिज्ञा )। क्योंकि उस प्रमाणके विषयभूत वस्तुके विशेष अंशमें विवाद उत्पन्न होनेपर नयज्ञान ही निर्णय करानेका निमित्त होता है ( हेतु ) । ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना चाहिये । कारण कि किसी भी जीवको प्रमाण द्वारा पूरे वस्तुका निर्णय हो जानेसे उस विषयके विशेष अंशमें जब संशयपूर्वक विवाद होना ही असम्भव है, तब नयसे सम्प्रतिपत्ति होना तो असिद्ध है। यदि यहां पर नैयायिक यों कहें कि किसी किसी ज्ञाताको विशेष अंशमें उस विप्रतिपत्तिके सम्भव होनेपर नयज्ञानसे भली प्रतीति होना सिद्ध देखा गया है, अतः नय पूज्य है। ऐसा कहनेपर तो हम समझाते हैं कि सम्पूर्ण वस्तुमें विवाद हो जानेपर क्यों नहीं प्रमाणके द्वारा समीचीन निर्णय होना सिद्ध माना जाता है । वस्तुके एक अंशमें विवाद होनेपर निर्णय करानेवाले नयज्ञानसे वस्तुके सकल अंशमें समारोप हो जानेपर निर्णय करानेवाले प्रमाणज्ञानको ही पूज्यपना आता है । एक रोगको दूर करनेवाली औषधिसे सम्पूर्ण रोगोंका नाश करनेवाली औषधि अधिक आदरणीय है । अतः यह प्रसिद्धवादी पक्षपातवश संपूर्ण वस्तुमें हुयी विप्रतिपत्तिके निराकरण करनेमें समर्थ हो रहे प्रमाण ज्ञानसे वस्तुके एक अंशमें हुयी विप्रतिपत्तिके निवारणमें समर्थ हुये समीचीन नयको पूज्य कह रहा है, ऐसा आग्रही पण्डित न्यायपूर्वक कहनेवाला नही समझा जा सकता है। नामसे नहीं किन्तु अर्थसे भी जिसको न्यायपूर्वक कहनेकी टेब है उसके ऊपर भारी उत्तरदायित्व स्थित है । तभी तो आचार्यने नयकी अपेक्षा पूज्य प्रमाणका पहिले प्रयोग किया है। मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोपि वा। ... ज्ञातस्यार्थस्य नांशस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥ २४ ॥ निःशेषदेशकालार्थागोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितः ॥ २५ ॥ कोई शंका करते हैं कि आप जैनोंने यों कहा था कि प्रमाणोंसे जान ली गयी वस्तुके अंशोंमें नयज्ञान प्रवर्तते हैं, किन्तु मतिज्ञानसे अथवा अवधिज्ञानसे भी एवं मनःपर्ययज्ञानसे भी जानलिये गये अर्थके अंशोंमें तो नयोंकी प्रवृत्ति नहीं हो रही है । क्योंकि वे मति आदिक तीन ज्ञान सम्पूर्ण देश कालके अर्थोको विषय नहीं कर पाते हैं ऐसा विशेषरूपसे निर्णीत हो चुका है। किन्तु सम्पूर्ण देशकालवर्ती वस्तुका समीचीन ज्ञान होनेपर ही नयज्ञानकी प्रवृत्ति होना माना गया है।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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