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________________ ३५० तत्वार्थ श्लोकवार्तिके स्वसन्तान और परसन्तान तथा बहिरंग अर्थों में अनुमानसे जानने योग्यपनकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । विवदापन्ना बहिरर्थबुद्धिरनालम्बना बुद्धित्वात् स्वमादिबुद्धिवदित्यनुमानाद्बहिरर्थोननुभाव्यो बुद्धया सिद्धयति न पुनः सन्तानान्तरं स्वसन्तानश्चेति न बुध्यामहे, स्वमसन्तानान्तरस्वसन्तानबुद्धेरनालम्बनत्वदर्शनादन्यत्रापि तथात्वसाधनस्य कर्तुं शक्यत्वात् । बहिरर्थग्राह्यतादूषणस्य च सन्तानान्तरग्राह्यतायां समानत्वात् तस्यास्तत्र कथञ्चिददुषणत्वे बहिरर्थग्राह्यतायामप्यदूषणत्वात् । कथं ततस्तत्प्रतिक्षेप इत्यस्त्येव बुध्द्यानुभाव्यः । बौद्ध जन अपनी सन्तानको सिद्ध करनेके लिये " अपना जीवन चाहते हो तो दूसरेका जीवन स्थिर रखो " इस न्यायसे दूसरोंकी ज्ञानसन्तानको तो इष्ट कर लेते हैं, किन्तु घट, पट, आदिक बहिरंग अर्थोको नहीं मानते हुए अनुमान करते हैं कि " विवाद में प्राप्त हुयीं बहिरंग अर्थोको जाननेवाली बुद्धि ( पक्ष ) अपने जानने योग्य विषयरूप आलम्बनसे रहित है ( साध्य ), क्योंकि वह बुद्धि है ( हेतु ), जैसे कि स्वप्न अवस्था, तमारे की दशा, उन्मत्तंपने में हुयीं बुद्धियां अपने विषयभूत अर्थोंसे रहित हैं । इस अनुमानसे बहिरंग अर्थ तो बुद्धिके द्वारा नहीं अनुभवमें आने योग्य सिद्ध कर दिया जाता है। किन्तु दूसरे सन्तान और अपनी आगे पीछे समयों में वर्तनेवाली सन्तानको जाननेवाली बुद्धियां आलम्बनरहित नहीं सिद्ध की जा रही हैं। हम नहीं समझते हैं कि ऐसी पक्षपातकी कृतिमें क्या रहस्य है । स्वप्नका दृष्टान्त लेकर वास्तविक घट, पट, नील, आदिक के ज्ञानको यदि निर्विषय मान लिया जाता है तो स्वप्न, मद्यपान, कठिन रोग, आदिकी अवस्था में नहीं विद्यमान हो रहे अन्य सन्तान और स्वसन्तानको जाननेवाली बुद्धियोंका निर्विषयपना दीखनेसे अन्य जागृत, स्वस्थ आदि अवस्थाओं में हुए वस्तुभूत स्वपरसन्तानोंके ज्ञानको भी तिस प्रकार निर्विषयपना साधा जा सकता है । दृष्टान्त तो सभी प्रकार के मिल जाते हैं किन्तु उनके धर्म दान्तिक में घटें तब तो तदनुसार सिद्धि की जा सकै अन्यथा नहीं । भ्रान्तज्ञानका दृष्टान्त देकर अभ्रान्त ज्ञानके विषयको न स्वीकार करना प्रामाणिकपना नहीं है । दूसरी बात यह है कि बहिरंग अर्थके ग्राह्यपने में जो दूषण आपकी ओर से दिये जायेंगे वे ही दूषण सन्तानान्तर के ग्राह्यपने में भी समानरूपसे लागू हो जायेंगे | आप बौद्धोंकी मानी हुयी क्षणिक बुद्धि केवल अपने स्वरूपको ही जानती है, बहिरर्थको नहीं । अतः बहिरर्थका ग्राह्यपना यदि दूषण है तो वह सन्तानान्तर के ग्राह्यपने में भी उसी प्रकार लगेगा । अपनी बुद्धिकी अपेक्षा सन्तानान्तर भी तो बहिर्भूत अर्थ है । यदि उस सन्तानान्तर ग्राह्यपनेमें उस बहिरर्थकी ग्राह्यताको किसी इष्ट कारण वश कैसे भी दूषण न मानोगे तो बहिरर्थकी ग्राह्यतामें भी बुद्धिसे बहिर्भूत अर्थका जान लेनापन दूषण न होगा । तब तो उन नील परमाणु आदि बहिर्भूत अर्थोका निराकरण आप कैसे कर सकेंगे ? अर्थात् नहीं । इस प्रकार बुद्धिके द्वारा सन्तानान्तर या बहिर्भूत अर्थ अवश्य अनुभव कुराने योग्य हैं ही । बौद्धोंकी कही हुयी कारिकाके
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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