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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
भी तो जीवित नहीं रह सकता है अन्योंकी अपेक्षा वह भी दूसरा है । सार्वजनिक ज्ञानमें अन्यायी राजाके समान पक्षपात चलाना समुचित नहीं है । देवदत्त कोई विशिष्ट ज्योतिःपिण्डमेंसे थोडा ही निकला है जिससे वही अकेला जगत्में बना रहे ।
स्यादाकूतं यथा वर्तमानबुद्धिः स्वरूपमेव वेदयते न पूर्वामुत्तरां वा बुद्धिं सन्तानान्तरं बहिरर्थे वा । तथातीतानागता च बुद्धिस्ततः स्वसंविदितः स्वसंतानः स्वसंविदितक्रमवर्त्यनेकबुद्धिक्षणात्मकत्वादिति । तदसत् । वर्तमानया बुद्धया पूर्वोत्तरबुद्धयोरवेदनात्, स्वरूपमात्रवेदित्पानिश्चयात् । ते चानुमानबुद्धया वेद्यते। स्वरूपमात्रवेदिन्यावित्यप्यसारम्, सन्तानान्तरसिद्धिप्रसंगात् । तथा च सन्तानान्तरं स्वसन्तानश्चानुमानबुद्धयानुभाव्यो न पुनर्बहिरर्थ इति कुतो विभागः सर्वथा विशेषाभावात् ।
. सम्भव है, इस खंडनका प्रतिखंडन करनेके लिये बौद्धोंकी यह भी अकाण्ड चेष्टा होवे कि जैसे वर्तमानकालमें होनेवाली बुद्धि अपने स्वरूपका ही ज्ञान कराती है पहिले और पीछे होनेवाले अपने बुद्धिरूप परिणामोंका तथा जिनदत्त, इन्द्रदत्त, आदि अन्य सन्तानोंका अथवा घट, पट, नील, पीत, आदि बहिरंग अर्थोका ज्ञान नहीं कराती है। क्योंकि ज्ञेय पदार्थोके कालमें ज्ञान नहीं उपज पाया और ज्ञानकालमें ज्ञेय नहीं रहे । तिस प्रकार भूत, भविष्यत, कालमें परिणत हो रहे बुद्धिके क्षणिक परिणाम भी अपने अपने क्षणवर्ती स्वरूपको ही जान पाते हैं । तिस कारण अपनी लम्बी चौडी ज्ञानधारारूप सन्तान तो स्वसंवेदनसे जानने योग्य है । क्योंकि वह सन्तान स्वसंवेदनसे जान लिये गये और क्रम क्रमसे होनेवाले बुद्धिके क्षणिक परिणामोंका समुदायरूप है । अतः अपनी लम्बी ज्ञानधारा तो बुद्धिसे अनुभाव्य मान ली जाती है, इस प्रकार बौद्ध अपने सन्तानकी सिद्धि करते हैं । आचार्य समझाते हैं कि उनका वह चेष्टित प्रशंसनीय नहीं है। कारण कि वर्तमान समयकी बुद्धिके द्वारा आगे पीछे होनेवाले बुद्धिक्षणोंका ज्ञान नहीं हो पाता है, तब तो वे बुद्धिके पूर्वसमयवर्ती या उत्तरसमयवर्ती परिणाम स्वको ही जानते हैं, बहिरंग विषयोंको नहीं जानते हैं, इसका पता नहीं चला । अतः केवल स्वरूपको ही जाननेवालेपनका निश्चय नहीं हुआ। ऐसी दशामें अपनी सन्तान (क्षणोंकी लम्बी डोरी ) भला स्वसंवेदनसे जानने योग्य कैसे मानी जा सकती है ? केवल एक क्षणवर्ती बुद्धि क्षणका ज्ञान तो सन्तानका स्वसंवेदन नहीं हो सकता है, तथा इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि अनुमानस्वरूप बुद्धि करके उन आगे पीछे होनेवाले बुद्धिक्षणोंका ज्ञान कर लिया जावेगा
और वे ( क्षणिकबुद्धियां ) केवल अपने स्वरूपको जान रहे भी हैं, यह भी बौद्धोंका कहना निस्सार है। क्योंकि यों तो स्वसन्तानके समान अन्य सन्तानोंकी भी सिद्धि हो जानेका प्रसंग होगा और नील, पीत, आदि बहिरर्थोकी सिद्धि हो जाना भी क्यों छोड दिया जावेगा ? और तिस प्रकार अनुमान ज्ञानोंसे अन्य सन्तान और स्वसन्तानको अनुभव कराने योग्य मान लिया जाय, किन्तु फिर बहिरंग अर्थको ज्ञेय न माना जाय इस प्रकार पक्षपातपूर्ण विभाग कैसे किया जा सकता है ? सभी प्रकारोंसे