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________________ तत्वार्यचिन्तामणिः प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि इस ढंगसे भला इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान भ्रान्तिरहित प्रत्यक्ष कहां सिद्ध होवेगा ! बताओ ! भावार्थ- - आप बौद्धोंने भी प्रत्यक्षको अभ्रान्त स्त्रीकार किया है और बहिरंग इन्द्रियां स्थूलपदार्थोका ही प्रत्यक्ष कराती हैं । ऐसी दशामें इन्द्रियोंके द्वारा उत्पन्न हुए ज्ञानोंमेंसे किसी एक को भी भ्रमरहितपना सिद्ध नहीं हो पाता है। बौद्धोंके मन्तव्यानुसार इन्द्रियजन्य सभी ज्ञान भ्रान्त हुए जाते हैं । इसपर बौद्ध यदि यों कहें कि जिसको तुम जैन या नैयायिक पण्डित भ्रान्तिवश अवयवी मान रहे हो, प्रमाणिक विद्वानोंको वहां परस्पर अतिनिकट रखे हुए किन्तु एक दूसरेसे संयुक्त नहीं ऐसे अनेक सूक्ष्म परमाणुओंमें इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अभ्रान्त प्रत्यक्ष हो जावेगा, यह उन बौद्धोंका कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि अतीन्द्रिय होनेके कारण परमशुद्ध आत्माका कभी किसीको जैसे इन्द्रियजन्य ज्ञान होना नहीं होता है, उसीके समान वे सूक्ष्म अतीन्द्रिय परमाणुएं भी कभी किसी भी जीवके इन्द्रियजन्य ज्ञानके विषय नहीं होते हैं । भावार्थ – बौद्धजन परमात्माको सर्वथा स्वीकार नहीं करते हैं । इन्द्रियोंके द्वारा परमात्माका ज्ञान होना तो किसी भी वादीने इष्ट नहीं किया है । अतः परमात्माका दृष्टान्त देकर सूक्ष्म परमाणुओंमें भ्रान्तिरहित इन्द्रियज्ञान होनेका निषेध सिद्ध कर दिया है । अथवा ब्रह्माद्वैतवादि - योंके परमब्रह्मका जैसे जैन या बौद्धों को ज्ञान नहीं होता वैसे ही बौद्धोंकी मानी गयीं परमाणुओंका भी ज्ञान होना नहीं बनता है । ३४१ सर्वदा सर्वथा सर्वस्येन्द्रियबुद्धयगोचरान् परमाणून संस्पृष्टान् स्वयम्मुपयंस्तत्रेन्द्रियजं प्रत्यक्षमभ्रान्तं कथं ब्रूयात्, यतस्तस्य स्थविष्ठाकारदर्शनं भ्रान्तं सिद्धयेत् । बौद्ध लोक परस्पर में भले प्रकार नहीं चुपटे हुए परमाणुओंको सदा सर्व प्रकारसे सभी जीवोंके इन्द्रियजन्य ज्ञानोंमें नहीं विषय होते हुए स्वयं स्वीकार करते हैं । ऐसा मन्तव्य कर चुकनेपर वे उन परमाणुओंमें इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए प्रत्यक्षज्ञानको भला अभ्रान्त कैसे कह सकेंगे ? जिससे कि उन बौद्धोंके यहां अत्यन्त स्थूल आकारवाले अवयवीका दखिना भ्रान्त सिद्ध हो जावे । अर्थात् माणिक रेती या रत्नराशिके समान परस्पर में नहीं भिडे हुए न्यारे न्यारे सूक्ष्म परमाणुओंका जब इन्द्रियोंसे ज्ञान ही नहीं होता है तो ऐसी दशामें उनसे माने गये परमाणुओंका भ्रम भिन्न प्रत्यक्षज्ञान भला कैसे हो सकेगा ? किन्तु वहां विपर्ययरहित समीचीन ज्ञान हो रहा है । अतः स्थूल आकार वाले एक अवयवीका प्रत्यक्ष प्रमाणसे दीखना बन जाता है । इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है । हमारा हेतु निर्दोष होकर सिद्ध है । कयाचित् प्रत्यासत्त्या तानिन्द्रियबुद्धिविषयानिच्छत् कथमवयविवेदनमपाकुर्वीत सर्वस्यावयव्यारम्भकपरमाणूनां कार्त्स्यतोऽन्यथा वा वेदनसिद्धेस्तद्वेदनपूर्वकावयविवेदनोपपत्तेः सहावयवावयविवेदनोपपत्तेर्वा नियमाभावात् ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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