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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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द्वितीय पक्षके अनुसार कितने ही एक परमाणुओंका अस्मदादिकको ज्ञान होता नहीं है । अतः किसी भीं अवयवीका ज्ञान होना न बन सकेगा । पहिले और दूसरे पक्षमें कुछ परमाणुओंका ज्ञान करना तो आवश्यक है, किन्तु जैन मतानुसार परमाणुओंका ज्ञान हम लोगोंको होता नहीं है । अतः उनसे बने हुए अवयवीका ज्ञान न हो सकनारूप दोष दोनों पक्षोंमें समानरूपसे लागू होजाता है कोई अन्तर नहीं है । तीसरा पक्ष ग्रहण करनेपर तो सम्पूर्ण अवयवोंसे रीते पडे हुए देशमें अवयवी ज्ञान होनेका प्रसंग होगा । अर्थात् अवयवोंका सर्वथा ज्ञान हुए विना ही जब अवयवका ज्ञान होने . लगेगा तो जहां घट, पट, आर्दिकका अंशमात्र भी नहीं है। वहां भी घट, पट, पर्वत, आदिकका ज्ञान हो जाना चाहिये । अवयवोंके विद्यमान रहनेकी या उनके ज्ञान होनेकी तो कोई आवश्यकता पडती नहीं है । तिस कारण आप जैनाके यहां अवयवीकी स्पष्ट ज्ञानद्वारा प्रमिति नहीं हो सकती है। जिससे कि स्पष्ट ज्ञानसे जानागयापन हेतु वास्तविकरूपसे सिद्ध होवे । यानी अवयवीको वास्तविक सिद्ध करनेके लिये आप जैनोंसे कहा गया स्पष्टज्ञानवेद्यपना हेतु अवयवीमें न रहनेके कारण असिद्ध लाभास है । अब आचार्य कहते हैं कि बौद्धोंका यह सब कहना भी लोकप्रसिद्ध प्रतीतियोंसे विरुद्ध पडता है। क्योंकि अतीव स्थूल, घट, पट, पर्वत, आदिक अर्थ अधिक स्पष्टपनेसे जाने जा रहे हैं, यह प्रतीति सब जीवोंको निश्चयसे हो रही है । जिस अवयवीका स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है, व्यर्थमें कोरे झूठे विकल्प लगानेसे उसके बालाग्रका भी खण्डन नहीं हो सकता है । कोई दरिद्र पुरुष किसी श्रेष्ठीके द्रव्य कमानेका विकल्प उठाकर खण्डन करना चाहे कि मैं भी पुरुष हूं और सेठ भी पुरुष है । हम दोनोंके ही हाथ पांव विद्यमान हैं, इत्यादि कुतर्कोंसे उस भाग्यवान् के सेठपनेका खंडन नहीं हो जाता है । बाल गोपालोंको भी स्वतन्त्र अवयवीका स्पष्टरूपसे ज्ञान हो रहा है । ऐसी दशा में पक्ष में रहता हुआ हेतु अवयवीके वास्तविकपनेको सिद्ध कर ही देता है । लेज, या लाठी के एकदेशको खींचनेपर पूरे पिण्डका आकर्षण होता है । यदि अवयवीको न माना जावेगा तो रेत अथवा बाल्के समान खण्डित टुकडोंके द्वारा पानी खींचना, बोझ लादना आदि कार्य नहीं हो पाते । किन्तु उक्त कार्य होते हैं । अतः भेद अथवा संघात या उभयसे उत्पन्न हुए स्थूल अवयवीका स्पष्टज्ञान होना प्रतीतिसिद्ध है ।
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भ्रान्तिरिन्द्रियजेयं चेत्स्थविष्ठाकारदर्शिनी ॥
क्वा भ्रान्तमिन्द्रियज्ञानं प्रत्यक्षमिति सिद्धयतु ॥ ९॥ प्रत्यासन्नेष्वयुक्तेषु परमाणुषु चेन्न ते ॥
कदाचित्कस्यचिदबुद्धिगोचराः परमात्मवत् ॥ १० ॥
वहां बौद्ध यों कहें कि अधिक स्थूल आकार को दिखलानेवाली यह इन्द्रियजन्य ज्ञप्ति तो श्रान्तिरूप है । जैसे कि अनेक धान्योंके समुदायको एक राशि मान लेना विपर्ययज्ञान है । इस
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