SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८ तत्त्वार्थकोकवातिक कि जिन्होंने इन्द्रियोंकी सहायता विना हुए झूठे विकल्पज्ञानोंमें स्पष्टताकी रक्षा करनेके लिये काहुक, शोकी जीवोंको प्रत्यक्षदर्शी योगी माननेका विचार कर लिया है । ऐसी बुद्धपनेकी बातोंको भोंडा मनुष्य ही कह सकता है । कल मेरा भाई आवेगा, चांदीका भाव गिर जावेगा. इत्यादि प्रकारके प्रतिभासे उत्पन्न हुए भावना ज्ञान कभी तो सच्चे हो जाते हैं, सर्वदा नहीं। किन्तु कामपीडित, शोकग्रस्त आदि पुरुषोंके तो मिथ्यावासनाओंसे हुए कामिनी, पुत्र आदिकको सन्मुख देखनेवाले स्पष्ट ज्ञान तो सर्वथा ही झूठे हैं। तिस कारण बहिरंग इन्द्रियोंसे जन्य अथवा अन्तरंग मन इन्द्रियसे जन्य किसी भी विकल्पज्ञानको स्पष्ट मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमकी अपेक्षासे स्पष्टपना प्राप्त होता है। भावार्थ-स्पष्टपना इन्द्रियोंसे नहीं आता है । किन्तु ज्ञानावरणके स्पष्ट क्षयोपशमसे ज्ञानमें स्पष्टता मानी गयी है । चाहे समीचीन ज्ञान हो अथवा भले ही भ्रान्तज्ञान हो । दोनोंमें स्पष्टपना अपने कारणरूप क्षयोपशमसे ही प्राप्त होगा। प्रकरणमें अवयवीका विकल्पज्ञान बाधकरहित प्रातियोंसे सम्यग्ज्ञानस्वरूप सिद्ध हो रहा है, उसकी स्पष्टता भी स्वयं अपने आप होती हुयी बन रही है । अतः अंशीका अंशके समान स्पष्ट ज्ञानसे जाना गयापन सिद्ध होगया। यदि अंशीको कल्पनासे आरोपित मान लिया जाय तो वह स्पष्टज्ञानसे जानागयापन नहीं सम्भवता है । इस कारण उस अंशीको वास्तविक होनेके कारण कल्पनाओंसे अनारोपितपना सिद्ध है। यहांतक पहिले दिये हुये इस अनुमानकी पुष्टि हो गयी कि अंशके समान अंशी भी स्पष्ट ज्ञानसे वेद्य होनेके कारण कल्पना गढन्त नहीं है । अर्थात् अंशी या अवयवी वास्तविक पदार्थ है। ___ ननु स्पष्टज्ञानवेद्यत्वं नावयविनो अनारोपितत्वं साधयति कामिन्यादिना स्पष्टभावनातिशयजनिततद्विकल्पवेद्येन व्यभिचारादिति चेन्न, स्पष्टसत्यज्ञानवेद्यत्वस्य हेतुत्वात् । तथा स्वसंवेद्येन सुखादिनानैकांत इत्यपि न मन्तव्यं, कल्पनानारोपितत्वस्याक्षजत्वस्य साध्यतयानभ्युपगमात् । परमार्थसत्त्वस्यैव साध्यत्वात् । यहां बौद्धोंका स्वपक्षके अवधारणार्थ आक्षेप है कि स्पष्ट ज्ञानसे जानागयापनरूप हेतु तो अवयवीका अनारोपितपना नहीं सिद्ध करा सकता है । क्योंकि विशदरूप हुयी भावनाके अतिशयसे उत्पन्न हुए उन विकल्पज्ञानों द्वारा जाने गये कामिनी, पिशाच, आदि करके हेतुका व्यभिचार हो जाता है। भावार्थ-स्पष्टज्ञानसे वेद्यपना कामिनी आदिमें है, किन्तु वहां अनारोपितपना नहीं है। जैसे कामिनी आदिक कल्पित हैं, तैसे ही अवयवी कल्पित है। अब आचार्य महाराज समाधान करते हैं कि यह तो न कहना। क्योंकि हमारे हेतुके शरीरमें सत्यशद्व निविष्ट हो रहा है । वास्तविक स्पष्टपना सत्यज्ञानमें ही माना गया है जो स्पष्टपनेसे सत्यज्ञानके द्वारा जाना जावेगा । वह अनारोपित अवश्य होगा। अब कोई व्यभिचार दोष नहीं है । तथा हमारे हेतुका स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जान लिये गये सुख, इच्छा, आदिसे व्यभिचार हो जायगा यह भी नहीं मानना चाहिये। क्योंकि इन्दियोंसे जन्य कल्पमा अनारोपितपनेको हमने साध्य नहीं स्वीकार किया है, जिससे कि सुख आदिमें
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy