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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
ननु चापि विकल्पः स्पष्टाभोऽनुभूयते न चासौ युक्तस्तस्यास्पष्टावभासित्वेन व्याप्तत्वात्, तदुक्तम्-" न विकल्पानुविद्धस्य स्पष्टार्थप्रतिभासता" इति । ततोऽस्य दर्शनाभिभवादेव स्पष्टपतिभासोऽन्यथा तदसम्भवादिति चेत्र, विकल्पस्यास्पष्टावभासित्वेन व्याप्त्यसिद्धेः। कामाद्युपप्लुतचेतसां कामिन्यादिविकल्पस्य स्पष्टत्वप्रतीतेः सोऽक्षज एव प्रतिभासो न विकल्पज इत्ययुक्तं, निमीलिताक्षस्यांधकारावृतनयनस्य च तदभावप्रसंगात् ।।
यहां बौद्ध फिर भी अपने पक्षका अवधारण करते हैं कि स्याद्वादियोंके यहां विकल्पज्ञान जो स्पष्टप्रकाश करता हुआ अनुभवमें आ रहा कहा जाता है, किन्तु वह तो युक्त नहीं है, क्योंकि उस विकल्पज्ञानकी अस्पष्ट प्रकाशीपनके साथ व्याप्ति सिद्ध हो रही है। यानी जो जो विकल्पज्ञान है वह वह अविशदरूपसे प्रकाशक है । वही हमारे ग्रन्थों में इस प्रकार कहा है कि कल्पनाओंसे बिंध रहे विकल्पज्ञानको अर्थका स्पष्ट प्रकाशपना नहीं है । संसारी जीवोंकी राग, द्वेष, मोहवश अनाप सनाप की गयीं कल्पनाएं क्या वस्तुको भला स्पर्श कर सकती हैं ! कभी नहीं । तिस कारण इस विकल्पज्ञानका निर्विकल्पकसे अभिभव हो जानेके कारण ही स्पष्ट प्रतिभास हो रहा है। अन्यथा यानी दर्शनके प्रभाव विना विकल्पमें स्पष्टताका होना असम्भव है । डंकके विना कांचमें इतनी बढिया चमक नहीं आ सकती है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिये। क्योंकि विकल्पज्ञानकी अस्पष्ट प्रकाशीपनके साथ व्याप्ति असिद्ध है । घट, पट, आदिकके अनेक विकल्पज्ञान स्पष्ट प्रतीत हो रहे हैं। काम, शोक भय, उन्मत्तता, आदिकसे घिरे हुए चित्तवाले पुरुषको कामिनी, इष्ट पुत्र, पिशाच, सिंह आदिक पदार्थोके विकल्पज्ञानका स्पष्टपना प्रतीत हो रहा है । बौद्धोंका ऐसा कहना कि वह विकल्प प्रतिभास तो इन्द्रियजन्य ही है। विकल्पजन्य नहीं है। इन्द्रियोंसे ज्ञानमें स्पष्टता आ जाती है, सो यह तो युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि इन्द्रियव्यापारको संदत कर अथवा आंखोंको मींचकर विचार करनेवाले या गाढान्धकारसे ढकी हुयीं आंखवाले पुरुषको कामिनी आदिमें उस विकल्पज्ञान होनेके अभावका प्रसंग होगा । अर्थात् इन्द्रियव्यापारके विना भी कामिनी आदिके ज्ञानमें स्पष्टता झलक रही है।
भावनातिशयजनितत्वात्तस्य योगिप्रत्यक्षतेत्यसम्भाव्यं, भ्रान्तत्वात् । ततो विकल्पस्यैवाक्षजस्य मानसस्य वा कस्यचित्स्पष्टमतिज्ञानावरणक्षयोपशमापेक्षस्याभ्रान्तस्य भ्रान्तस्य वा निर्वाधप्रतीतिसिद्धत्वादवयविविकल्पस्य स्वतः स्पष्टतोपपत्तेः सिद्धमंशिनः स्पष्टज्ञानवेद्यस्वमंशवत् । तच्च न कल्पनारोपितत्वे सम्भवतीति तस्यानारोपितत्वसिद्धेः।।
भावना ज्ञानके चमत्कारसे उत्पन्न हो जानेके कारण उस कामिनी आदिके ज्ञानको योगिप्रत्यक्षपना मान लिया जाय यह तो असम्भव है । क्योंकि कामपीडित पुरुषोंको वियुक्त अवस्थामें कामिनीका ज्ञान होना या शोकी पुरुषको मृतपुत्रका सन्मुख दौखना ये सब विपर्ययज्ञान हैं। भलल अन्नीन्द्रियदर्शी योगीके विपर्ययज्ञान होनेकी सम्भावना कहां है ? बौद्धोंका साहस तो देखिये