SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्याचन्तामाणिः ३३५ दर्शन इन दोनोंकी एक साथ प्रवृत्ति होनेपर तिस ही कारण अश्वके विकल्पका स्पष्ट प्रतिभास हो जाना चाहिये, यह प्रसङ्ग तुम्हारे ऊपर आता है। यानी तिरोभूत करनेवाला गोदन अश्ववियल्पके अविशदपनका अभिभवकर उसका स्पष्ट प्रकाश कर देवे । तस्य भिन्नविषयत्वान्न गोदर्शनेनाभिभवोऽस्तीति चेत्, किमिदानीमेकविषयत्वे सति विकल्पस्य दर्शनेनाभिभवः साध्यते ततः तस्य स्पष्टप्रतिभास इति मतम् । नैतदपि साधीयः। शब्दस्वलक्षणदर्शनेन तत्क्षणक्षयानुमानविकल्पस्याभिभवप्रसंगात्। न हि तस्य तेन युगपद्भावो नास्ति विरोधाभावाद ततोऽस्य स्पष्टप्रतिभासः स्यात् । ___बौद्ध यदि यों कहें कि गोदर्शन और अश्वविकल्पका भिन्न भिन्न विषय होनेके कारण गौके निर्विकल्पक दर्शन करके अश्वविकल्पके अस्पष्टपनेका तिरोभाव नहीं होपाता है। जहां एक ही विषयमें दर्शन होय और उसी विषयमें विकल्पज्ञान उत्पन्न होवेगा, वहां निर्विकल्पसे विकल्पज्ञान दब जावेगा। ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूछते हैं कि क्या आपका यह मन्तव्य है कि एक विषयता होनेपर यह विशेषण लगाते हुये विकल्पज्ञानका निर्विकल्पक करके तिरोभूत हो जाना साधा जाता है। अभिभूत हो जानेके कारण उस विकल्पज्ञानका विशदरूपसे प्रतिभास हो रहा है । सो यह बौद्धोंका मन्तव्य भी बहुत अच्छा नहीं है। क्योंकि शद्वस्वरूप स्वलक्षणके निर्विकल्पक ज्ञानसे उस शद्बके क्षाणकत्वको जाननेवाले अनुमानरूप विकल्पज्ञानके छिप जानेका प्रसंग हो जावेगा। क्षणिकत्वको जाननेवाले उस विकल्पका उस निर्विकल्पकके साथ एक समयमें विद्यमानपना नहीं है यह न समझ लेना, क्योंकि दोनोंके साथमें रहनेका कोई विरोध नहीं है। सविकल्पक और निर्विकल्पक दो ज्ञानोंकी एक समयमें दो पर्यायें हो सकती हैं। तिस कारण इस अनुमानरूप विकल्पका विशदज्ञान होजाना चाहिये । भावार्थ-कर्ण इन्द्रिय द्वारा वस्तुभूत शद्बस्वलक्षणके जान लेनेपर शबसे अभिन्न क्षणिकत्व भी जान लिया जाता है वस्तुभूत पदार्थमें प्रत्यक्षकी ही प्रवृत्ति बौद्धोंने मानी है। यदि क्षणिकत्वको प्रत्यक्षने न जाना होता तो क्षणिकपना वास्तविक न हो पाता । किन्तु शद्बमें कुछ देरतक ठहरने या नित्यपनेके समारोप हो जानेपर उसको दूर करनेके लिये पुनःक्षणिकत्वके निर्णयार्थ सत्त्वहेतुसे अनुमान किया जाता है । यहां प्रत्यक्षरूप निर्विकल्पकज्ञान और अनुमानरूप विकल्पज्ञानका विषय एक है । ऐसी दशामें दर्शनकी स्पष्टतासे विकल्पकी अस्पष्टताका अमिभव हो जाना चाहिये। किन्तु आप बौद्धोंने उसको इष्ट नहीं किया है। भिन्नसामग्रीजन्यत्वादनुमानविकल्पस्य न दर्शनेनाभिभव इति चेत्, स्यादेवम् । यद्यभिन्नसामग्रीजन्ययोर्विकल्पदर्शनयोरविभाव्याभिभावकभावः सिद्धयेत् नियमात् । न चासौ सिद्धः सकलविकल्पस्य खसंवेदनेन स्पष्टावभासिना प्रत्यक्षेणाभिन्नसामग्रीजन्येनाप्यभिभवाभावात् । स्वविकल्पवासनाजन्यत्वाद्विकल्पस्य पूर्वसंवेदनमात्रजन्यत्वाच्च स्वसंवे
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy