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________________ तत्वार्थ छोकवार्तिके ओंके वश अंशीका विकल्पज्ञान गढ लिया जाता है । बहुतसे लोग भ्रान्तिवश हुए अंशीके ज्ञानको इन्द्रियोंसे हुआ मान लेते हैं । किन्तु उनको यह विवेक नहीं है कि अंशीको जाननेवाले सविकल्पकज्ञान ( मिथ्याज्ञान ) और अंशको जानने वाले निर्विकल्पकज्ञान ( सम्यग्ज्ञान ) में युगपत् ( एक साथ ) वृत्ति होनेसे अथवा घूमते हुए पहियेके समान अधिक शीघ्रतापूर्वक लघुवृत्ति होनेसे एकपनका अध्यवसाय ( मनमानी कल्पना कर लेना) हो रहा है। अतः जिस समय अंशोंका स्पष्टरूपसे दर्शन हो रहा है उस समय ही पहिले अंशोंके देखनेसे उत्पन्न हुआ अंशीका विकल्पज्ञान नहीं है । वह विकल्पज्ञान तो दूसरे समयमें गढ लिया जाता है । वही हमारे ग्रन्थोंमें इस प्रकार कहा है कि विशेष मूढ पुरुष ही चित्तधाराओंकी उसी समय एक साथ वृत्ति होनेसे अथवा चक्रभ्रमणके समान उत्तर उत्तर आगे के समय में शीघ्र लघुवृत्ति होनेसे उन सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानोंमें एकपनेका निर्णय कर लेता है । अर्थात् सविकल्पक और निर्विकल्पककी न्यारी न्यारी दो ज्ञानधाराओंके मानने पर एक समयमें ही हो गयीं अंशीज्ञान और अंशज्ञानरूप दो पर्यायोंमें एकपना जान लिया जाता है । दो धाराओं के अनुसार एक समयमें दो पर्यायें हो सकती हैं। हां ! यदि एक ही ज्ञानधारा मानी जाय तब तो उस चित्तधाराकी एक समयमें एक ही पर्याय होगी । एक गुण या विज्ञान एक समयमें एक ही पर्याय को धारण कर सकता है । अतः क्षणिक विज्ञानकी निर्विकल्पक पर्याय होने पर शीघ्र ही अव्यवहित उत्तर समयमें सविकल्पकज्ञानरूप पर्याय हो जाती हैं । अतः दोनों पक्षोंके अनुसार उत्पन्न हुए दो ज्ञानोंमें एकपनेका आरोप कर लिया जाता है । वस्तुतः इन्द्रियोंसे अंशीका सविकल्पक ज्ञान हो नहीं सकता है। अब आचार्य कहते हैं कि सो बौद्धोंका वह कहना भी युक्तियोंसे रहित है । क्योंकि— विकल्पेनास्पष्टेन सहैकत्वाध्यवसाये निर्विकल्पस्यांशदर्शनस्यास्पष्टत्वप्रतिभासनानुषंगात् । स्पष्टप्रतिभासेन दर्शनेनाभिभूतत्वाद्विकल्पस्य स्पष्टप्रतिभासनमेवेति चेत् न, अश्वविकल्पगोदर्शनयोर्युगपदवृत्तौ तत एवाश्वविकल्पस्य स्पष्ट प्रतिभासप्रसंगात् । अविशदरूपसे अवस्तुरूप विकल्प्यको जाननेवाले विकल्पज्ञानके साथ यदि निर्विकल्पक दर्शनका एकपना आरोपित कर लिया जावेगा तब तो अंशको देखनेवाले निर्विकल्पक ज्ञानको भी अविशदरूपसे प्रतिभास करनेपनका प्रसंग होगा । अत्यन्त धनिष्ठ मित्रता हो जानेपर निर्विकल्पकका स्पष्टपना धर्म जैसे सविकल्पकमें आ जाता है, उसी प्रकार सविकल्पका अविशदपना धर्म निर्विकल्प में भी घुस जावेगा। यदि आप बौद्ध यों कहें कि तारागणसे सूर्य नहीं छिप जाता है, किन्तु स्पष्टप्रकाशवाले सूर्यसे जैसे मन्द प्रकाशवाले तारागण प्रच्छन्न हो जाते हैं, वैसे ही स्पष्ट प्रतिभासवाढे निर्विकल्पक दर्शन करके विकल्पके अस्पष्टपनेका तिरोभाव हो जानेके कारण यहां विकल्पज्ञानका ही आरोपित स्पष्ट प्रतिभास हो गया है। यानी निर्विकल्पकके स्पष्टत्व धर्मने विकल्पके अस्पष्टत्व धर्मको दबा दिया है । सो यह तो न कहना, क्योंकि अश्वका विकल्पज्ञान और गायका निर्विकल्पक 1 ३३४
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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