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तत्वार्थ लोकवार्तिके
स्वसंवेदन भी दो अंशवाला होगा । तैसे ही बहिरंग पदार्थोके भी अनेक अवयव मान लेना चाहिये । अथवा शुद्ध स्वसंवेदन ज्ञान जैसे आप बौद्धोंको मान्य है, तद्वत् अवयवीको भी मानलो ! अयुक्त आग्रह करना प्रशस्त नहीं है ।
तस्यार्थक्रियायां सामर्थ्याच्च न कल्पनारोपितत्वम् । न हि माणवकेऽग्निरध्यारोपितः पाकादावाधीयते । करांगुलिष्वारोपितो वैनतेयो निर्विषीकरणादावाधीयत इति चेत् न, समुद्रोल्लंघनाद्यर्थक्रियायामपि तस्याधानप्रसंगात् । निर्विषीकरणादयस्तु तदा पानादिमात्रनिबन्धना एवेति न ततो विरुध्यन्ते ।
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जो अर्थक्रियाओंको करता है वह वस्तुभूत है ( अर्थक्रियाकारित्वं वस्तुनो लक्षणम् ) । घट, पट, आदिक अवयवी और आत्मा, आकाश, आदि अंशी पदार्थोंको सिद्ध करनेमें यह अच्छी युक्ति है कि वह अंशी अर्थक्रिया करनेमें समर्थ है । अतः कोरी कल्पनासे मान लिया गया नहीं है । एक तेजस्वी चंचल बालकमें अग्निपनेका आरोप कर लिया गया । इतने हीसे वह आरोपी गयी अग्नि विचारी पचाना, जलाना, फफोडा डालना, पानी सुखाना आदि क्रियाओंके उपयोग करनेमें नहीं ली जाती है । यों कल्पित अवयवी कुछ कार्य नहीं कर सकेगा। इधर अवयवीसे कार्य हो रहे दीख रहे हैं । यदि कोई यों कहे कि हाथकी अंगुलियोंमें कल्पित कर लिया गया गरुडपक्षी विष उतारने रूप क्रिया आदिमें अर्थक्रियाकारी माना गया है । अर्थात् गारुडिक जन अपनी अंगुलियोंमें गरुडकी स्थापना कर उसके द्वारा सांप के काटे हुए मनुष्यका विष उतार देते हैं । इस प्रकार कल्पित पदार्थ भी कुछ कार्य कर देते हैं । बौद्धोंके इस कटाक्षपर आचार्य समझाते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि यों तो समुद्रका उल्लंघन करना, पर्वतको लांघ जाना आदि अर्थक्रियाओंमें भी उस अंगुलीरूप गरुडके उपयोग हो जानेका प्रसंग होगा । मुख्यसे ही होनेवाले कतिपय कार्य कल्पित पदार्थसे कैसे भी नहीं हो सकते हैं । विषरहित करना आदिक कार्य तो उस समय मन्त्रित जलके पान अथवा गरुडकी आकृति आदिको कारण मानकर ही उत्पन्न हो गये हैं । इस कारण उस कल्पित गरुडसे होते हुए विरुद्ध नहीं माने जाते हैं । किन्तु समुद्रका उल्लंघन करना तो वस्तुभूत मुख्य गरुडका कार्य है । अन्धे पुरुषको समझानेके लिये कोहनीसे ऊपर आधा हाथ उठाकर अंगुलियोंको समेट कर पौंको टेढा करके बगुलाकी सूरत बनायी जाती है । अन्धा पुरुष उसको हाथसे टटोलता है । एतावता वह हाथ बकके समान आकाशमें गमन नहीं कर पाता है । प्रकरण में यों कहना है कि अवयवी अनेक अर्थक्रियाओंको करता हुआ दीख रहा है, अतः अंशी परमार्थ है । कल्पित नहीं । नन्वर्थक्रियाशक्तिरसिद्धावयविनः, परमाणूनामेवार्थक्रियासमर्थसिद्धेस्त एव ह्यसाधारणार्थक्रियाकारिणो रूपादितया व्यवह्नियंते । जलाहरणादिलक्षणसाधारणार्थक्रियायां प्रवर्तमानास्तु घटादितया । ततो घटाद्यवयविनो अवस्तुत्वसिद्धिस्तस्य संवृतसच्वादिति चेत् न, परमाणूनां जलाद्यर्थक्रियायां सामर्थ्यानुपपत्तेर्घटादेरेव तत्र सामर्थ्यात् परमार्थसिद्धेः ।
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