________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
mammmmmmmmmmmmmmmmmmmmmoc
ज्ञानोंकी सगर्व मानता हो गयी है। यानी जनसमुदाय दो कल्पना ज्ञानोंका एक समयमें होना भ्रमवश कह रहा है। वस्तुतः विचारा जाय तो दो कल्पनाएं दो समयोंमें हुयी हैं तिसकारण दूसरी कल्पनाके उत्पन्न होते हुए पूर्वसमयकी कल्पना स्वरूपसे आरोपे गये भी अवयवीका वस्तुतः अस्तित्व नहीं है । बौद्धोंका ऐसा विचार होनेपर हम जैन कहते हैं कि तब तो इन्द्रियजन्य ज्ञानोंका कहीं वास्तविकरूपसे साथ रहनापन कैसे सिद्ध होगा ? वहां भी कह दिया जा सकता है कि उन ज्ञानोंकी भी अतिशीघ्रतासे अव्यहित उत्तरोत्तर समयोंमें प्रवृत्ति होनेके कारण मध्यका अन्तराल नहीं दीखा है । अतः संसारी जीवोंको इंद्रिय ज्ञानोंके एक साथ होनेकी मानना सिद्ध हो रही है। वस्तुतः इंद्रियजन्य ज्ञान भी एक साथ कई उत्पन्न नहीं हुए हैं । किंतु यह बात आप बौद्धोंके सिद्धान्तसे विरुद्ध पडेगी। आपने भुरभुरी कचौडीके खाते समय पांचों इन्द्रियोंसे जन्य पांच ज्ञान एक साथ हुए माने हैं । जैन जन उपयोग आत्मक पांचका तो क्या दो ज्ञानोंका भी एक साथ होना नहीं अभीष्ट करते हैं । चेतना गुणकी एक समयमें एक ही पर्याय हो सकती है । न्यून अधिक नहीं।
___ कथं वावं विकल्पयतोपि च गोदर्शनादर्शनकल्पनाविरहसिद्धिः ? कल्पनात्मनोऽपि गोदर्शनस्य तथाश्वविकल्पेन सहभावप्रतीतेरविरोधात् । ततः सर्वत्र कल्पनायाः कल्पनान्तरोदये निवृत्तिरेष्टव्या, अन्यथेष्टव्याघातात् । तथा च न कल्पनारोपितोंशी कल्पनान्तरे सत्यप्यनिवर्तमानत्वात् स्वसंवेदनवत् ।
और हम आपसे पूंछते हैं कि अश्वका विकल्पज्ञान करते हुए पुरुषके भी गायका निर्विकल्पक दर्शन हो जानेसे दर्शनरूप कल्पनाके अभावकी सिद्धि भला कैसे करोगे ? बताओ। क्योंकि कल्पनास्वरूप भी गोदर्शनकी तिस प्रकार अश्वाविकल्प ज्ञानके साथ होनेवाली प्रतीतिका कोई विरोध नहीं है । आपने दो कल्पनाओंका साथ रहना स्वीकार कर ही लिया है। . तिस कारण आपको अपने सिद्धान्तके रक्षित रखनेका अब यही उपाय अवशिष्ट है कि सभी स्थलोंपर दूसरी कल्पनाके उदय हो जानेपर पहिली कल्पनाकी निवृत्ति हो जाना इष्ट कर लेना चाहिये। अन्यथा आपके अभीष्ट मन्तव्योंका व्याघात हो जायेगा और तैसा होनेपर तो सिद्ध हो जाता है कि अवयवी-या अंशी कल्पनासे गढा गया नहीं है। क्योंके दूसरी कल्पनाओंके उत्पन्न हो जानेपर भी वह निवृत्त नहीं हो रहा है, जैसे कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष कल्पित नहीं है । भावार्थ-चाहे निर्विकल्पक ज्ञान हो या भले ही सविकल्पकज्ञान हो, पूरा मिथ्याज्ञान भी क्यों न हो। ये सब अपनेको तो प्रमाणस्वरूप संवेदनसे जानते हैं, वह संवेदन प्रत्यक्ष जैसे कल्पित ज्ञान नही है । " भावप्रमेया पेक्षायां प्रमाणाभासनिन्हवः ( आप्तमीमांसा )"। तिसी प्रकार अंशी पदार्थ कल्पित नहीं हैं । अनेक अंशवाला एफ अंशी पदार्थ वस्तुभूत है । बौद्धोंने स्वांशमें प्रमाण और बहिरंग विषयके ग्रहण करनेमें अप्रमाम ऐसे दो अंशोंसे युक्त मिथ्याज्ञानका स्वसंवेदन होना मान लिया है । वह उसका ग्राहक