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तत्त्वार्थचिन्तामाणः
है । अतः स्वपरको जानना और परके त्यागपूर्वक स्वांशोंमें निष्ठा ( स्थिरता ) करना ये दोनों ही ज्ञान और चारित्रके लक्षण हैं । जब उपदेश मात्रसे ही लक्षण करना सिद्ध हो जावे तो पुनः लम्बे चौडे सूत्रके बनानेका दूसरा प्रयत्न करना व्यर्थ है । जहां अपने वाचक शबके अर्थसे स्वका व्यभिचार होता है, वहां नामकथनके अतिरिक्त लक्षण बनाया जाता है । जैसे कि घट शद्वका अर्थ चेष्टा करना है और हितको ग्रहण करना, अहितको छोडनेकी क्रिया करनेको चेष्टा कहते हैं । यह अर्थ जडस्वरूप घटमें घटता नहीं है । इस कारण कम्बुग्रीवा यानी शंखके समान ग्रीवावाला वडे पेटवाला आदि घडेका लक्षण किया जाता है । किंतु जहां अपनेको कहनेवाले वाचक शद्वके अर्थके साथ व्यभिचार नहीं है, वहां इस कारण कहीं भी लक्षण सूत्रा पृथक् नहीं कहा जाता है । जैसे पाचक, पाठक, दुग्ध आदि यौगिक शद्वोंका अर्थ व्यभिचार नहीं है।
. नन्वेवं मत्यादीनां पृथग्लक्षणसूत्रं वक्तव्यं शद्धार्थव्यभिचारादिति न चोद्यं, कारणादिविशेषसूत्रैस्तदर्थव्यभिचारस्य परिहृतत्वात् । ।
यहां विक्षेपपूर्वक शङ्का है कि यों जिन शब्दोंका अपने वाच्यार्थके साथ व्यभिचार होरहा है, उनके लक्षण करनेका पृथक् सूत्र बनाया जाता है । ऐसा कहनेपर तो मति, अवधि, अवग्रह आदिका भी लक्षण बनाकर कहना चाहिये। क्योंकि यहां भी अपने वाचक शबके अर्थका व्यभिचार होरहा है । जिससे विचार किया जावे, उसको मति कहते हैं । यह यौगिक लक्षण इन्द्रियप्रत्यक्षोंमें नहीं जाता है। क्योंकि प्रत्यक्ष ज्ञान विचार करनेवाला नहीं है । मर्यादा करनेको अवधि कहते हैं, वृष्टिके विघातको अवग्रह कहते हैं या चारों ओरसे ग्रहण करनेको अवग्रह कहते हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकारका कुतर्क नहीं करना चाहिये । क्योंकि उनके कारण, भेद, अधिकरण आदि विशेषताओंको कहनेवाले सूत्रों करके उन वाच्यार्थोके व्यभिचारका परिहार करदिया जाता है । अर्थात् मतिज्ञानके कारण इन्द्रिय और अनिन्द्रिय बतलाये हैं, अवग्रह आदि भेद किये हैं। इससे सिद्ध है कि वह विचार करना ही मति नहीं है, किन्तु इन्द्रिय, मनसे होनेवाला ज्ञान मति है, जो कि विचाररूप व्याप्तिज्ञान, पत्यभिज्ञान आदिसे अभिन्न है और नहीं विचार करनेवाले रासनप्रत्यक्ष, चाक्षुषप्रत्यक्ष आदिरूप भी है । ऐसे ही भवप्रत्यय, अनुगामी, विशुद्धि, स्वामि, आदिके निरूपणसे अवधि शब्दका अर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी मर्यादाको लिये हुए प्रत्यक्ष करनेवाला ज्ञान होता है । तथा अर्थ और व्यञ्जनके बहु आदि भेदोंको विषय करनेवाले अवग्रहका भी अर्थ यह होता है कि इन्द्रिय और अर्थके योग्य देशमें स्थित होनेपर पैदा हुए सत्ताका आलाचन करनेवाले दर्शनके पीछे अवान्तरसत्ता-विशिष्ट वस्तुके ग्रहण करनेवाले ज्ञानको अवग्रह कहते हैं।
__ सम्यग्दर्शनस्य लक्षणसूत्रमनर्थकमेवं स्यात् कारणविशेषसूत्रादेव तच्छब्दार्थस्य व्यभिचारपरिहरणादिति चेन्न, निसर्गाधिगमकारणविशेषस्य प्रशस्तालोचनेऽपि भावाय