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तत्वार्यलोकवार्तिके.
यहां दूसरी शंका है कि जीव वाचक जीव शर, वृषभशद्व, तथा अजीव वाचक मोदक शब्द अथवा चित्र, प्रतिबिम्ब, आदिसे वास्तविक पर्यायरूप आत्मा, बैल, लड्डु आदि पदार्थोमें (का) ही सुलभतासे ज्ञान होता है, क्योंकि वे पदार्थ ही पढाना, लादना, क्षुधानिवृत्ति करना, आदि अर्थक्रियाओंको करनेवाले हैं । लड्डके नाम या चित्रसे भूख दूर नहीं होती है, अथवा भविष्यमें लड्डु बननेवाले चना, पोंडा, खातसे भी मोदकका स्वाद उपलब्ध नहीं होता है। अतः भावनिक्षेप मानना ही ठीक है, अन्य निक्षेपोंका मानना व्यर्थ है । अब आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना, क्योंकि नाम आदिक भी अपनी अपनी अर्थक्रियाओंके करनेवाले सिद्ध हो रहे हैं । भावार्थ-इन्द्र जीव, आदि नामोंसे जान लिये गये पदार्थ अपने अनुरूप क्रियाओंको करते हैं, व्याकरणशास्त्र में तो शब्द ही प्रधान हैं, अर्थ और ज्ञानको वहां कोई नहीं पूछता है । अग्नि शब्द की "सु" संज्ञा है । पावक, अनल शद्बकी या अग्निके ज्ञानकी या अत्युष्ण आग पदार्थकी सु संज्ञा नहीं है । मन्त्रमें शब्द प्रधान हैं, अर्थ नहीं। किसी आतुरकी लड्डू नामसे भी लार टपक जाती है । राग रागिनियोंके सुननेमें शद्वकृत आनन्द है, अर्थकृत विशेष आनंद नहीं है। रुपया, पैसा, मोहर, नोट, स्टाम्प आदिमें सम्राट्के नाम या स्थापनासे ही कार्य चलता है । अकेला राजा कहां कहां जाता फिरेगा । आश्चर्य गृह ( अजायब घर ) या चित्रगृहोंके प्रेक्षणसे अनेक व्यवहारयोग्य कार्य होते हैं । पैरमें हाथी रोग हो जानेसे सिंहका चित्र कर देनेपर रोगका उपशम हो जाता है । रसोई आदिकी शीघ्रता दिखलानेके लिये द्रव्यनिक्षेप कार्यकारी है । अनिर्वृत्तिकरण अवस्थाका मिथ्याज्ञान भविष्यके सम्यग्ज्ञानमें उपयोगी हो रहा है । अतः नाम आदिक भी अपने योग्य अर्थक्रियाओंको कर रहे हैं, जो कि उनसे ही हो सकती हैं । यदि तुम यों कहो कि वस्तुके पर्याय स्वरूपभावसे होनेवाली अर्थ क्रियाका करना उन नाम आदिकों करके नहीं होता है । अतः वे नाम आदिक अर्थक्रियाकारी नहीं हैं, ऐसा कहोगे तो हम जैन कहेंगे कि नाम आदिकसे की जानेवाली अर्थक्रियाओंका करना वास्तविक पर्यायरूप भावसे नहीं होता है। अतः भावको भी अर्थक्रियाकारीपन न होओ! यों तो अन्नका कार्य जलसे नहीं होता है और जलका कार्य अन्नसे नहीं होता है। इतनेसे ही क्या ये भी अर्थक्रियाको करनेवाली वस्तु न बन सकेगी। .. कांचिदप्यर्थक्रियां न नामादयः कुर्वन्तीत्ययुक्तं तेषामवस्तुत्वपसंगात् । न चैतदुपपन भाववन्नामादीनामवाधितमतत्यिा वस्तुत्वसिद्धेः।
नाम, स्थापना, और द्रव्य, किसी भी अर्थक्रियाको नहीं करते हैं, यह कहना तो अयुक्त है । क्योंकि ऐसा कहनेपर उनको अवस्तुपनका प्रसंग हो जावेगा । नामनिक्षेप, संज्ञा संज्ञेय व्यवहार को करता है। इसको माने विना शास्त्रपरिपाटी, वायवाचकपन, पण्डितमूर्खपन, वकालत, वक्तृता आदि बहुत कुछ व्यवहार मिट जायेंगे । यह वह है ऐसी प्रतिष्ठा कर देनेसे मुख्यपदार्थोके द्वारा होनेवाले नैमित्तिक भावोंके समान परिणामोंको स्थापना निक्षेप करा देता है। इसको 'माननेपर ही