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________________ तवार्यलोकवार्तिक पर्यायको प्राप्त हुए थम्मेके प्रकरणमें उस पाषाण या काष्ठके खम्भेकी ही नियमसे व्युत्पत्ति कराना है और प्रकरण प्राप्त कार्यके अनुपयोगी ऐसे किसीका नाम धर दिये गये खम्भ या पत्रमें चित्रित किये गये स्थापना खम्भ या भविष्यमें खम्भेरूप होनेवाले वृक्ष या शिलारूप द्रव्यथम्भ इन अप्रकृतोंका प्रबोध नहीं कराना है यह अर्थक्रिया समर्थ अर्थका प्रयोजन सधजाना प्रकरणमें नहीं प्राप्त हुये पदार्थोका नाम आदिसे निक्षेप किये विना नहीं घटता है। अन्यथा उन प्रकरण प्राप्त और प्रकरणके अनुपयोगी पदार्थोके संकीर्णपने और व्यतिकीर्णपनेसे भी व्यवहार हो जानेका प्रसंग हो जावेगा। जो कि किसीको भी इष्ट नहीं है। यानी किसी मनुष्यका नाम वृषभ रख देनेसे उस व्यक्तिमें भाववृषभरूप पर्याय हो जानेसे मनुष्यपने और पशुपनेका संकर हो जावेगा । अथवा लादने और गाडी बैंचने रूप कार्यको वृषभ नामका मनुष्य करने लग जायगा, और मनुष्यके कार्य अध्यापन और वाणिज्यको परस्पर विषयगमनरूप व्यतिकर हो जानेसे बैल पशू करने लग जायगा, किन्तु व्यवहारमें नाम, स्थापना आदिसे निक्षिप्त किये गये पदार्थोके न्यारे न्यारे प्रयोजन देखे जाते हैं । अतः पदार्थोका न्यास करना आवश्यक है । किसी बडे प्रासादमें लगे हुए स्तम्भका दूरवर्ती पुरुषको ज्ञान करानेके लिये उसके चित्रको ही पत्र द्वारा भेजकर कृतकृत्य हो सकते हैं । मुख्य खम्भा परदेशको नहीं भेजा जा सकता है तथा छतका बोझ साधनेके लिये मुख्य स्तम्भकी आवश्यकता है । पत्र पर लिखा हुआ खम्भा वहां कार्यकारी नहीं है । ननु भावस्तम्भस्य मुख्यत्वाध्याकरणं न नामादीनां "गौणमुख्ययोर्मुख्य संप्रत्यय" इति वचनात् । नैतन्नियतं, गोपालकमानय कटजकमानयेत्यादौ गौणे संपत्ययसिद्धेः । नहि . तत्र यो गाः पालयति यो वा कटे जातो मुख्यस्तत्र संप्रत्ययोऽस्ति, किं तर्हि ? यस्यैतमाम कृतं तत्रैव गौणे प्रतीतिः । कृत्रिमत्वाद्गौणे संप्रत्ययो न मुख्ये तस्याकृत्रिमत्वात् “ कृत्रिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययः" इति वचनात् । नैतदेकान्तिकं पांशुलपादस्य तत्रैवोभयगतिदर्शनात् । सहप्रकरणज्ञत्वादुभयं प्रत्येति किमहं योगाः पालयति यो वा कटे जातस्तमानयामि किं वा यस्यैषा संज्ञा तम् ? इति विकल्पनात् । प्रकरणज्ञस्य कृत्रिमे संपत्ययोऽस्तीति चेत् न, तस्याकृत्रिमेऽपि संप्रत्ययोपपत्तेस्तथा प्रकरणात् ।। यहां शंका है कि लोहा, काठ, पत्थर, या ईटोंसे बने हुए पर्यायरूप थम्भकी मुख्यता होनेसे सब स्थलोंपर असली खम्भका ही ज्ञान कराया जावेगा । नामखम्भ या स्थापनाखम्भ आदिकोंका नहीं । ऐसा नियम है कि गौण और मुख्यका प्रकरण होनेपर मुख्यमें ही भले प्रकार ज्ञान होता है ऐसा प्रसिद्ध परिभाषाके द्वारा कहा गया है । इसपर आचार्य कहते हैं कि उक्त परिभाषा नित्य नहीं है । गौण और मुख्यकी योग्यता होनेपर मुख्य हीका ज्ञान हो, यह नियम सब देश और सर्व कालमें लागू नहीं होता है । गोपालको लाभो । अथवा कटजको लाओ । इन्द्रको भोजन
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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