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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः २७३ सन्तान मानी जावेगी । तीसरे प्रकार के क्षणिक परिणामोंके सम्बन्धविशेषसे हुए पिण्डको तीसरी सन्तान कहा जावेगा । इस प्रकार बौद्ध लोग देवदत्त, जिनदत्त, आदि अनेक सन्तानोंके विभागकी सिद्धि करेंगे। तब तो एकद्रव्यस्वरूप चित्तके विशेष परिणामोंको एकसन्तानपना सिद्ध हो गया । द्रव्य नामक प्रत्यासत्तिको ही तिस प्रकार होनेवाले एक सन्तानपनेकी कारणता सिद्ध होती है । एक द्रव्यके नाना परिणामोंकी एक सन्तान करनेमें उपादान उपादेयभाव आनन्तर्य, क्षेत्रप्रत्यासत्ति, भावसम्बन्ध, आदिके प्रयोजकत्वका खण्डन किया जा चुका है । अर्थात् एक मिट्टीसे अनेक घडा, घडी, सकोरा, सराई आदि बन जाते हैं, किन्तु इनकी एकसन्तान नहीं है । हां ! जितनी मिट्टीसे घडा बना है उसके ही पूर्वापर परिणामोंका विचार किया जावे तो उनमें एक" सन्तानपना बन जाता है । ऐसे ही बैलके मस्तकमें उत्पन्न हुए दायें, बायें, सींगोंका उपादानकारण एक है, फिर भी उन सींगोंकी एकसन्तान नहीं कही जा सकती है । तथा एक खेतमें एक ही समय जौ, चना, गेहूं, मटर, बोए गये कुछ समय बाद बीजोंके उत्तर परिणामरूप अंकुर पैदा हुए, यहां जौके बीज और जौके अकुंरका तो एकसन्तानपना है किन्तु गेहूं के बीज और जौके अंकुरका एकसन्तानपना नहीं है, भलें ही अनन्तर उत्तर समयों में होना रूप कालप्रत्यासत्ति गेहूंके अंकुर और जौके बीज में विद्यमान है । तथा एक थैलीमें अनेक रुपये, पैसे और मोहरें रक्खी हैं, किन्तु इनका एक द्रव्य सम्बन्ध न होनेके कारण एक क्षेत्रमें रहते हुए भी एकसन्तानपना नहीं है, अथवा वात, आतप, कार्मणवर्गणायें, आकाश, कालाणु, जीव, धर्म, अधर्म द्रव्य ये सब उन्हीं आकाश के प्रदेशोंपर हैं इनमें क्षेत्रप्रत्यासत्ति है किन्तु एकसन्तानपना नहीं । तथा शास्त्रीयपरीक्षा उत्तीर्ण अनेक छात्रोंमें एकसा शास्त्रज्ञान अथवा ऋषभ आदि महावीर पर्यन्त चौबीस सिद्ध परमेष्ठियों में एकसा केवलज्ञान होनेसे भावप्रत्यासत्ति है, किन्तु द्रव्यप्रत्यासत्ति न होनेसे इनमें एकसन्तानपना नहीं है। परिशेषमें द्रव्यप्रत्यासत्ति ही एकसन्तानपनेका अव्यभिचारी उपाय है । इसके अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध उनका घटक नहीं हो सकता है । ततोऽस्खलत्सादृश्यप्रत्यभिज्ञानात् सादृश्यसिद्धिवदस्खलदेकत्वप्रत्यभिज्ञानादेकत्वसि - द्धिरेवेति निरूपितप्रायम् । तिस कारण अबाधित सादृश्यप्रत्यभिज्ञान से परिणामोंमें जैसे सदृशपनेकी सिद्धि हो जाती है, वैसे ही अविचलित ( प्रामाणिक ) एकत्वप्रत्यभिज्ञानसे एकपनेकी सिद्धि भी हो ही जाती है इस बातको हम पहिले प्रकरणों में प्रायः ( बहुभाग ) निरूपण कर चुके हैं। उपादान उपादेय भावका या एक सन्तानपनेका निर्दोष कारण एकद्रव्यप्रत्यासत्ति ही है ! आत्मा आदि वस्तुओंके अनादि अनन्त पहिले पीछे होनेवाले परिणामोंमेंसे एक एक व्यक्तिरूप द्रव्यके नियमितपरिणामोंमें द्रव्यप्रत्यासत्ति ओतप्रोत हो रही है, जैसे कि दूध, दही, घीमें गोरसत्व तदात्मक हो रहा है । 35
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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