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________________ २७२ तत्त्वार्थलोकवार्तिके पाणामेकसन्तानत्वं द्रव्यप्रत्यासत्तेरेव तथा भावनिवन्धनत्वोपपत्तेरुपादानोपादेयभावानन्तर्यादेरपाकृतत्वात् । बौद्ध कहते हैं कि अपनी पर्यायोंमें तीनों काल अन्वित रहनेवाले आत्माके एकत्वको विषय करनेवाले ज्ञानका सादृश्यपत्यभिज्ञान बाधक है। अर्थात् भिन्न भिन्न समयोंमें हुए निरन्वय परिणाम हैं, वे सदृश हैं, एक द्रव्यरूप नहीं हैं । केशोंके काट देनेपर पुनः उत्पन्न हुए केशोंमें ये वे ही केश हैं यह ज्ञान, जैसे पहिले केशोंके सदृश ये केश हैं इस सादृश्यप्रत्यभिज्ञानसे बाध्य हो जाता है, अथवा यह वही चूर्ण है जो वैद्यजीने कल दिया था तथा यह वही सहारनपुरसे बम्बईको जानेवाली रेलगाडी है जिससे कि कल इन्द्रदत्त बम्बईको गया था, यहां भी सादृश्यप्रत्यभिज्ञान उन एकत्व प्रत्यभिज्ञानोंको बाधता है । तैसे ही आत्मामें हुए एकत्वके ज्ञानका क्षणिक परिणामोंमें परस्पर होने वाला सादृश्यप्रत्यभिज्ञान बाधक है । इसपर आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो नहीं कह सकते हो। क्योंकि पूर्वापरपरिणामोंकी एक सन्तानरूप लडीमें वह सादृश्यज्ञान कभी नहीं होता है। यदि आप बौद्ध यों कहें कि देवदत्त, जिनदत्त, चन्द्रदत्त, आदि अनेक सन्तानरूप चित्तों ( आत्माओं ) में वह सादृश्यप्रत्यभिज्ञान होता हुआ देखा जाता है, देवदत्त जिनदत्तके सदृश है । जिनदत्तका ज्ञान चन्द्रदत्तके ज्ञानसरीखा है। अतः एक देवदत्तकी सन्तानरूप चित्तोंमें भी सादृश्यज्ञानका सद्भाव मानोगे यानी देवदत्तके पूर्वसमयवर्ती ज्ञान और सुखका सादृश्य वर्तमान ज्ञान सुखोंमें है, देवदत्तके अनेक ज्ञान सुख आदिकोंमें अन्वित रहनेवाला कोई एक द्रव्य नहीं है, सो इस प्रकार तो नहीं कहना । क्योंकि यों तो देवदत्त, जिनदत्त आदिकी न्यारी-न्यारी अनेक सन्तानोंके विभाग न हो सकनेका प्रसंग होगा। भावार्थ-देवदत्तके पूर्वापर परिणाम भी सब सदृश हैं, किसीसे अन्वित नहीं, यानी द्रव्यरूप लडीसे बंधे हुए तदात्मक नहीं हैं और जिनदत्तके भी आगे पीछे होने वाले परिणाम सदृश होते हुए न्यारे-न्यारे पडे हैं, ऐसी दशामें एक एक देवदत्त, जिनदत्तं, आदि चित्तकी किन किन परिणामोंसे लडी बनायी जावे ? । चार व्यक्तियोंके पास उसी सन् , मूर्ति, लेख, कमूराओंके ठीक समान सौ सौ रुपये हैं उन रुपयोंको इकट्ठा कर दिया जावे तो कौनसा उपाय है जिससे कि वे के वे ही रुपये उनके पास पहुंचे, जो कि उनके पास पहिले थे, अर्थात् कोई उपाय नहीं । तथा न्यारे न्यारे पत्रोंकी छपी हुयी किताबोंमेंसे बीसवां पत्र यदि अन्य वैसी ही पुस्तकमें मिला दिया जावे और उसका बीसवां पत्र इस पुस्तकमें मिला दिया जावे तो इसका निर्णय कैसे किया जावे कि यह पत्र इस पुस्तकका नहीं है, उसका है । इसी प्रकार द्रव्यसम्बन्धको न स्वीकार कर सदृश पदार्थोमें एक सन्तानपनेको माननेवाले बौद्धोंके यहां सन्तानसांकर्यके निवारणका कोई उपाय नहीं है । अतः जिनदत्त इन्द्रदत्त आदि अनेक सन्तानोंका विभाग करना अशक्य हुआ । यदि अनेक स्वकीय परकीय परिणामोंमें सदृशपनेका अन्तर न होते हुए भी किन्हीं ही विशेषचित्तोंका सम्बन्ध विशेष हो जानेके कारण एकसन्तानपना माना जावेगा और दूसरे किन्हीं चित्तविशेषोंका विशेषसम्बन्ध होनेसे दूसरी
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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