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तत्वार्थ लोकवार्तिके
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गुण, क्रिया, द्रव्य, स्वरूप व्यक्तियोंके प्रधानपने करके प्रतिपादन करनेमें हम स्याद्वादियोंको कोई विरोध नहीं है, जिससे कि सामान्यविशेष आत्मक वस्तुको शद्वका विषय बडे बलसे कहनेवाले अनेकान्तवादियोंके यहां व्यवहार में पांच प्रकारके शद्वोंकी प्रवृत्ति होना सिद्ध न होवे । भावार्थ — सभी शब्दोंका वाच्य अर्थ जाति और व्यक्ति इन दोनोंसे तदात्मक पिण्डरूप हो रही वस्तु है । कहीं जाति प्रधान है और व्यक्ति गौण है, तथा अन्यत्र व्यक्ति प्रधान है, जाति गौण है । हमारे यहां = यक्ति और जातिका रूप, रसके समान तदात्मक सहचर सम्बन्ध 1
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तेनेच्छामात्रतन्त्रं यत्संज्ञाकर्म तदिष्यते ।
नामाचार्यैर्न जात्यादिनिमित्तापन्नविग्रहम् ॥ ५३ ॥
`तिस कारण वक्ता केवल इच्छाके अधीन जो संज्ञा करना है, वह आचार्यों करके नामनिक्षेप इष्ट किया गया है । नामनिक्षेपका शरीर जाति, गुण, क्रिया, द्रव्य, परिभाषा आदि निमितोंसे युक्त नहीं है । अर्थात् जाति आदिक निमित्तोंकी नहीं अपेक्षा करके वक्ताकी इच्छा मात्रसे किसी भी वस्तुका चाहे जो कोई नाम धर दिया जाता है, वह पहिला नामनिक्षेप है । जैसे कि जातिको निमित्त मानकर विशेष पशुओंमें घोडा शब्द व्यवहृत होता है, किन्तु किसी मनुष्यमें या बन्दूक अवयवमें अथवा इञ्जनमें घोडा शद्वका व्यवहार करना नामनिक्षेप है । इसी प्रकार काक, शब्द भी जाति के सहारे पक्षी विशेषमें चालू है, किन्तु गले अवयवमें या शीशीकी डाटमें नामनिक्षेपसे व्यवहार में आ रहा है । इनके अतिरिक्त भी आप काक, घोडा, पीला आदि नाम चाहे जिस वस्तुका रख सकते हैं ।
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सिद्धे हि जात्यादिनिमित्तान्तरे विवक्षात्मनः शब्दस्य निमित्तात् संव्यवहारिणां निमित्तान्तरानपेक्षं संज्ञाकर्म नामेत्याहुराचार्यास्ततो जात्यादिनिमित्तं संज्ञाकरणमनादियोग्यतापेक्षं न नाम । केनंचित् स्वेच्छया संव्यवहारार्थं प्रवर्तितत्वात्, परापरवृद्धप्रसिद्धेस्तथैवाव्यवच्छेदात्, बाधकाभावात् ।
यतः ( चूंकि ) शद्बके विवक्षास्वरूप निमित्तसे न्यारे जाति, गुण, आदि निमित्तान्तर सिद्धि हो चुके हैं, उन निमित्तान्तरोंकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ किन्तु विवक्षारूप निमित्तसे व्यवहारियोंके द्वारा जो संज्ञा घर लेना है. वह नाम है, ऐसा आचार्य महाराज कहते हैं । तिस कारण अनादिकालीन योग्यताकी अपेक्षा रखता हुआ वह जाति, द्रव्य, आदिको निमित्त लेकर संज्ञा कर लेना नामनिक्षेप नहीं है, यह सिद्ध होगया । यानी नामनिक्षेप धर लेने में अनादि योग्यता की आवश्यकता नहीं है । और जाति आदि निमित्तोंकी भी अपेक्षा नहीं है । किसी भी पुरुषने अपनी इच्छासे समीचीन व्यवहारके लिये जो कुछ नामनिक्षेपकी प्रवृत्ति कर ली है, सो समीचीन है ।
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