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तचार्य लोकवार्तिके
पैदा कराते हुए उस वस्तुको विषय करानेवाले माने गये हैं, तैसे ही शद्ब भी ऐसा है । अतः जाति, व्यक्ति, स्वरूप वस्तुको विषय करनेवाला है । इस प्रकार पांच अवयववाले इस अनुमानमें दिया गया व्यवहारको उत्पन्न करानेवाला हेतु असिद्ध नहीं है, यानी पक्षमें रह जाता है, बहिरंग और अन्तरंग सामान्यविशेषात्मक पदार्थोंमें शद्बसे जन्य व्यवहार भले प्रकार देखा जाता है । तथा दूसरी बात यह है कि जिस ही विषयमें शद्वसे प्रतिपत्ति होवे और उसीमें प्रवृत्ति होवे, तथा उस ही विषयकी प्राप्ति होवे तो वह शब्दका विषय अवश्य माना जाता है । जैसे कि बह्निको जाननेवाले प्रत्यक्ष या अनुमान आदि प्रमाणोंसे प्रतिपत्ताकी बह्नि विषयमें ही प्रतिपत्ति हुयी है और अग्निको ही लेनेके लिये प्रवृत्ति हुयी है, तथा अग्नि पदार्थ ही प्राप्त किया गया है, अतः प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंका विषय अग्नि ही मानी जाती है । तैसे ही शब्दका वाच्य विषय भी प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति, और प्राप्ति की एकविषयताको लेता हुआ सामान्यविशेषात्मक वस्तु है । प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति, और प्राप्तिकी एकविषयता ही ज्ञानका सम्वादीपन है । इस प्रकार सभी व्यवस्था भले प्रकार स्थित हो जाती है, कोई दोष नहीं आता है
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सत्ताशद्बाद्द्रव्यत्वादिशद्धाद्वा कथं सामान्यविशेषात्मनि वस्तुनि प्रतिपत्तिरिति चेत्, सद्विशेषोपहितस्य सत्सामान्यस्य द्रव्यादिविशेषोपहितस्य च द्रव्यत्वादिसामान्यस्य तेन प्रतिपादनात् । तदनेनाभावशद्बादद्रव्यत्वादित्वाद्वा तत्र प्रतिपत्तिरुक्ता भावान्तरस्वभावत्वादभावस्य गुणादिखभावत्वाच्चाद्रव्यत्वादेः भावोपहितस्याभावस्याभावशद्धेन गुणाद्युपहितस्य चाद्रव्यत्वादेरद्रव्यत्वादिशद्धेन प्रकाशनाद्वा । न च भावोपहितत्वमभावस्यासिद्धं सर्वदा घटस्याभावः पटस्याभाव इत्यादि भावोपाधेरेवाभावस्य प्रतीतेः । स्वातन्त्र्येण सकृदप्यवेदनात् ।
कोई पूछता है कि सम्पूर्ण शब्दोंका अर्थ जाति और व्यक्ति स्वरूप माना जावेगा तो केवल जातिवाचक सत्ताशद्व या द्रव्यत्व, गुणत्व, आदि शद्वोंसे कैसे सामान्यविशेष स्वरूप वस्तुमें प्रमिति होवेगी ? ऐसा कहनेपर तो हम जैन यों उत्तर देते हैं कि विशेष सत् माने गये घट, रूप, आदिकी उपाधियोंसे युक्त सत्तासामान्यका सत्ता शद्वसे प्रतिपादन होता है और उन द्रव्यत्व, पदार्थत्व, गुणत्व, आदि शद्वोंके द्वारा विशेष द्रव्य, गुण आदि विशेषणोंसे निष्ठत्व सम्बन्ध करके युक्त द्रव्यत्व, गुणत्व, पदार्थत्व आदि सामान्योंका निरूपण होता है । भावार्थ — विशेषोंसे रहित केवल सामान्य खरविषाणके समान अवस्तु है और सामान्यसे रहित कोरा विशेष भी अश्वविषाणके समान असत् पदार्थ है, यानी कोई वस्तुभूत नहीं है । वैशेषिकोंके समान सामान्यसे रहित विशेषोंको और विशेषसे रहित सामान्यको हम जैन इष्ट नहीं करते हैं । जहां सामान्य है, वहां विशेष अवश्य है । अतः - जातिवाचक शब्द भी विशेषोंसे विशिष्ट ( आधेयता सम्बन्धसे ) सामान्यको ही कहते हैं । यहां सामान्यका प्रधानरूपसे और विशेषोंका गौणरूपसे प्ररूपण हो जाता है । विशेष विशेषण हो