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' तचार्य श्लोकवार्तिके
अब आचार्य समझाते हैं कि उस बौद्धकी दृश्यके समान कभी कभी विकल्प्य में भी प्रवृत्ति हो जाओ ! दृश्य और विकल्प्य में कोई अन्तर नहीं है । दृश्य विषय और विकल्प्य विषयमें एकत्वका अध्यवसाय अन्तररहित होते हुए भी दृश्यमें ही प्रवृत्ति होवे, किन्तु विकल्प्य में तो कभी प्रवृत्ति न होवे, ऐसा नियम करनेमें हम कोई कारण ही समझते हैं, अर्थात् दृश्यका शद्वके द्वारा उच्चारण कर देनेपर वह विकल्प्य हो जाता है । दर्शनके विषय हो जानेसे दृश्य कहा जाता है और विकल्पके विषय हो जानेसे विकल्प्य कहा जाता है अर्थ वही एक है । फिर नहीं समझमें आता कि बौद्ध दृश्यमें ही प्रवृत्ति होना क्यों मानते हैं ?
दृश्येऽर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिस्तस्यार्थक्रियायां समर्थनान्न पुनर्विकल्प्ये तस्य तत्रासमर्थनत्वादिति चेन्नार्थक्रियाऽसमर्थेन विकल्प्येन सहैकत्वाध्यारोपमापन्नस्य दृश्यार्थक्रियासमर्थत्वैकान्ताभावात् ।
बौद्ध जो ऐसा कहते हैं कि निर्विकल्पक दर्शनसे जानने योग्य स्वलक्षणरूप दृश्यमें अर्थ - क्रियाके इच्छुक जीवोंकी प्रवृत्ति होती है, कारण कि अर्थक्रिया करनेमें वह दृश्य ही समर्थ है, किन्तु फिर विकल्प्य में गोदोहन, भारबहन, तृप्ति, पिपासानिवृत्ति, पाक आदि अर्थक्रियाओंके अभिलाषी tant प्रवृत्ति नहीं होती है, क्योंकि गो, अन्न, जल, अग्निके विकल्पज्ञानोंका विषय असत् पदार्थ है वह असत् पदार्थ उन अर्थक्रियाओंको करनेमें समर्थ नहीं है । अतः विकल्प्य में जीवोंकी प्रवृत्ति नहीं होती है । ऐसा पक्ष कहना ठीक नहीं है । क्योंकि अर्थक्रिया करनेमे असमर्थ माने गये विकल्प्यके साथ एकपनेके अध्यारोपको प्राप्त हुए दृश्यका एकान्तरूपसे अर्थक्रिया करनेमें समर्थपनेका अभाव है । अर्थात् विकल्प्य और दृश्यका एकपना आपने मान लिया है तो विकल्प्यके धर्म दृश्यमें भी आये विना न रहेंगे | जब विकल्प्य अर्थक्रियाओंको नहीं कर सकता है तो उसके साथ एकमएक हो रहा दृश्य भी अर्थक्रियाओंको न कर सकेगा। अस्पृश्य शूद्र मनुष्यके साथ यदि रोटी बेटी व्यवहार नहीं है तो उसमें मिले हुए अन्य व्यक्तियों के साथ भी त्रैवर्णिकोंका वह व्यवहार नहीं हो सकता है ।
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स्वतोर्थक्रियासमर्थे दृश्यमिति चेत् तदेकत्वाध्यारोपाद्विकल्प्यमपि । स्वतो न तत्समर्थमिति चेत् तदैक्यारोपाद्दश्यमपि । तदनयोरेकत्वेनाध्यवसितयोरविशेषात् सर्वथा safeguar कथमन्यत्रापि प्रवृत्तिर्विनिवार्यते ।
बौद्ध कहते हैं कि दृश्य स्वलक्षण तो स्वयं आपसे आप ही अर्थक्रिया करनेमें समर्थ है । अब आचार्य उत्तर देते हैं कि ऐसा कहोगे तो उस दृश्यके साथ एकत्वाध्यारोप हो जानेसे विकल्प्य अर्थ भी अर्थक्रिया करने में समर्थ हो जाओ ! फिर भी बौद्ध कहें कि विकल्प्य अर्थ तो स्वतः अपनी गांठसे उन अर्थक्रियाओं को करने में समर्थ नहीं है, ऐसा कहनेपर तो हम कह देवेंगे कि निकम्मे विकल्प्यके साथ एकत्वारोप हो जानेसे दृश्य स्वलक्षण भी अर्थक्रियाओंको न कर सकेगा ।