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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः २५३ प्राधान्येन संकेतविशेषे प्रवृत्तेस्तद्वाच्यभेदस्तु न वास्तवोतिप्रसंगात् । तदुक्तं - " अपि चान्योन्यव्यावृत्तिवृत्त्योर्व्यावृत्त इत्यपि । शद्वाथ निश्चयाचैव संकेतं न निरुन्धते " इति दृश्यविकल्प्ययोर्व्यावृत्योरेकत्वारोपाव्यावृत्तिचोदनेऽपि शद्वेन विकल्पेन वा व्यावृत्तेः प्रवृत्तिरर्थे स्यादिति कश्चित् । यहां बौद्धका एक देशीय वादी यों कहता है कि अन्य अर्थ का पृथग्भूत होना अन्य अर्थोसे नहीं होता है और जो पृथग्भूत हुआ है वह अन्य ही है, यह भी नहीं कहना चाहिये । अर्थात् अन्य व्यावृत्तियोंसे वास्तविक पदार्थ ( स्वलक्षण ) व्यावृत्त नहीं होते हैं । व्यावृत्ति तुच्छ वस्तु है और व्यावृत्तियोंसे सहित पदार्थ भी तुच्छ है । घट आदिकी व्यावृत्तियोंसे घटरूपी स्वलक्षण जैसे पृथग्भूत है तैसे ही सजातीय घट या विजातीय पट आदिकी व्यावृत्तियोंसे भी घट पृथक् है । अन्यथा अघट ( पट आदि ) व्यावृत्तिसे निवृत्त हो रहे घटको पटके समान अघटपनेका प्रसंग होगा और तैसा होनेपर उस घटकी अघट व्यावृत्ति कैसे भी नहीं हुयी । तिस कारण जो ही भिन्न पडी हुयी व्यावृत्ति है वही पदार्थ व्यावृत्त कहा जाता है । अघट व्यावृत्ति, अपट व्यावृत्ति, अपुस्तक व्यावृत्ति इत्यादिक भिन्न भिन्न शद्बोंका होना और भिन्न भिन्न ज्ञानोंका होना तो संकेतग्रहण के भेदसे ही बन जाता है । भावमें क्ति प्रत्यय करके व्यावृत्ति धर्मरूप पदार्थ हो जाता है । और कर्म में क प्रत्यय करनेसे व्यावृत्त धर्मीरूप पदार्थ है । हम धर्म और धर्मीको वास्तविक नहीं मानते हैं । कल्पना किये गये धर्म धर्मीकी प्रधानतासे विशिष्ट प्रकारके इच्छारूप संकेतोंमें या विशेष संकेतोंको निमित्त मानकर प्रवृत्ति हो जाती है । भिन्न भिन्न शब्दोंका भिन्न भिन्न वाच्य मानना तो वास्तविक नहीं है, अन्यथा अतिप्रसंग दोष होगा । भिन्न भिन्न भाषाओंके अनेक शब्द न्यारे न्यारे हैं और अर्थ एक ही है । कचित् शद्ब एकसे हैं और अर्थ न्यारे न्यारे हैं । सो ही हमारे बौद्ध ग्रन्थोंमें कहा है कि और भी परस्पर में होनेवाली एक दूसरेकी व्यावृत्ति और वृत्तियां भी ऐसे ही व्यावृत्त हैं । भाव और भाववान् ये सब कल्पना शिल्पीके गढे हुए निस्तत्त्व अंश हैं । व्यवहारमें चालू हो रहे शद्ब और उन शब्दोंके अनुसार हुए निश्चय संकेतप्रणालीको रोकते नहीं हैं । भावार्थ-संकेतप्रणालीके अनुसार अनेक शब्द व्यवहारी जीवोंने मनगढंत प्रचलित कर दिये हैं और उन शब्दोंसे जन्य ज्ञान भी वैसे ही है । इस प्रकार शद्वरूप दृश्य और विकल्प्योंकी व्यावृत्ति - योंमें एकपनेके आरोपसे व्यावृत्तिकी प्रेरणा करनेपर भी शब्द और विकल्पज्ञान करके व्यावृत्ति हो जानेसे किसीकी वास्तविक स्वलक्षण अर्थमें प्रवृत्ति हो जावेगी । भावार्थ – व्यावृत्ति और व्यावृत्तिके अनुसार अटकलपच्चू दृश्य अर्थ में प्रवृत्ति हो जाती है, इस प्रकार कोई कह रहा है । 1 तस्य विकल्प्येsपि कदाचित्प्रवृत्तिरस्तु विशेषाभावात् । न हि दृश्यविकल्प्ययोरेकत्वाध्यवसायाविशेषेऽपि दृश्य एव प्रवृत्तिर्न तु विकल्प्ये जातुचिदिति बुध्यामहे |
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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