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तत्त्वार्थ लोकवार्त
शद्वाद्वैतवादी ही कहते जारहे हैं कि अवस्तुरूप उपाधियोंको प्रकाश करनेवाले शब्द कैसे भी सत्य नहीं हो सकते हैं। क्योंकि वे अपने वाच्य माने गये विषयोंसे रहित हैं, जैसे कि बन्ध्यापुत्र अपने विषयसे रहित है तिस कारण शद्वके विषयसहितपनेको चाहनेवाले विद्वान् करके शद्बका वाच्य हो रहा विषय केवल शद्बका स्वरूप ही इष्ट कर लेना चाहिये । उस शद्बका उस अपने स्वरूपके प्रतिपादन करनेमें कभी भी व्यभिचार न होगा । अर्थात् सभी सार्थक या निरर्थक शब्द अथवा द्वन्द्र आदिक जीवोंके शब्द भी कमसे कम अपने शद्वस्वरूप शरीरका प्रतिपादन कर ही देवेंगे । जैन, नैयायिक और मीमांसकोंके माने हुए जाति शद्व, गुणशद आदिकोंका तो व्यभिचार देखा जाता है, वे जाति आदिकके न होनेपर भी अन्यत्र व्यवहृत होते हुए देखे जा रहे हैं । देखिए ! गौ, घोडा, उलूक, ऊँट, आदि जातिवाचक शब्द विचारे गोत्व, अश्वत्व आदि जातियोंके न होनेपर भी लानेवाले, दौडनेवाले पोंगा, भोंदू आदि मनुष्योंमें नहीं प्रवर्त्तरहे हैं, यह न कहना । किन्तु मनुष्यों में भीगो आदि शब्दोंकी प्रवृत्ति है । अतः सिद्ध होता है कि शब्द अपने स्वरूपको ही कहता है । जाति आदिक वाच्यअर्थको नहीं ।
तत्रोपचारात् प्रवर्तन्त इति चेन्नापराजातयोपि यत्र क्वचन तेषां प्रवर्तनात् । तथा द्रव्यशब्दा दण्डीविषाणीत्यादयो गुणशब्दाः शुक्लादयश्वरत्यादयश्च क्रियाशब्दाः द्रव्यादिव्यभिचारिणोऽभ्युह्याः ।
यदि कोई यों कहे कि उन पल्लेदार, मूर्ख मतिमन्द आदि मनुष्यों में उपचारसे बैल, उल्लू आदि प्रवर्तते हैं, सो यह तो नहीं कहना, क्योंकि दूसरी जातियां भी जिस किसी भी व्यक्तिमें उनके प्रवर्त रही हैं । भावार्थ – गच्छति इति गौः गमन करनेवाली गौ है । अश्नाति इति अश्वः जो खाता है वह घोडा है, इन अर्थोंका उपचार ( रूढि ) गाय और घोडेमें किया गया है। तिसी प्रकार आप जैन या मीमांसकोंके माने गये दण्डी, विषाणी, इत्यादि द्रव्यशद्व और शुक्ल, पाटल आदि गुणशद्व तथा चलना, तैरना आदि क्रियाशद्व ये भी द्रव्य, गुण और क्रियारूप अर्थोंसे व्यभिचार करनेवाले समझ लेने चाहिए । दण्ड नीतिवाले या दण्ड देनेवाले पुरुषको भी दण्डी कहते हैं । दण्ड एक घोडा भी होता है । मिट्टी या पाषाणके बने हुए खिलौनोंको भी दण्डी, विषाणी कह देते हैं । शुक्ल एक गोत्र होता है । पाटल एक वस्त्रका नाम है । चलना यह शब्द अन्न छाननेवाले पात्रमें व्यवहृत है ।
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सन्मात्रं न व्यभिचरन्तीति चेत् न, असत्यपि सत्ताभिधायिनां शब्दानां प्रवृत्तिदर्शनात् न किञ्चित्सदस्तीत्युपयन् सदेव सर्वमिति ब्रुवाणः कथं स्वस्थो नाम, ततोऽनर्थान्तरे गुणादाविव शुद्धद्रव्येऽपि शब्दस्य व्यभिचारात् स्वरूपमात्राभिधायित्वमेव श्रेय इतीतरे ।
यदि कोई यों कहे कि द्रव्यवाचक धर्मशद्व भलें ही पुण्यमें प्रवृत्त हो जावे । ऐसे ही सिंह शव वीर पुरुषमें या गो शब्द नेत्र, वाणी आदि अर्थोंमें बोला जावे, किन्तु ये शद्व सामान्य