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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः वाई वणिक्से सौदा लिया। किन्तु रुपयेमेंके कुछ बचे हुए पैसे लेना भूल गया, वह रातको सोचने लगा कि हम वणिक्से शेष दाम लेना भूल गये, उसकी दुकानका भी स्मरण न रहा। हां ! ठीक है, याद आ गया उसकी दुकानके आगे धौली गाय बैठी थी। घरपर अफीमची सोच रहा था उधर कुछ देर पीछे वह गाय चलकर यवन सूचीकार ( दर्जी ) की दुकानके सन्मुख जा बैठी, अफीमची प्रातः बाजारको पैसे लौटानेके लिये गये और गायको वहां देखकर सूजीसे कहने लगे कि तू बडा नीच है, अयोग्य है, मायाचारी है, मैंने तेरे सरीखे अनेक कपटी भुगते हैं, हमसे ही धूर्तता करता है । रातमें ही मिठाईकी दुकानके सामानको बदलकर डड्डी रखाकर आ बैठा है, हमको ठगता है ! इत्यादि । इसपर लडाई होने लगी । बुद्धिमानोंके समझानेपर भी अहिफेनमदीको बोध नहीं हो पाया, अपना ही आग्रह किये गया । वस्तुतः कथन यह है कि औपाधिकस्वरूप असत्य होते हैं। विश्वसनीय नहीं माने जा सकते हैं। न च जात्यायुपाधयः सत्या एव तदुपाधीनामपि सत्यत्वापत्तेः उपाधितद्वतोः कचियवस्थानायोगात् । तदुपाधीनामसत्यत्वे मौलोपाधीनामप्यसत्यत्वानुषंगात् । . शद्वाद्वैतवादी ही बडी देरसे कहते जा रहे हैं कि जाति, द्रव्य, गुण, आदि उपाधियां सत्य ही नहीं हैं। यदि जाति आदिकको सत्य माना जावेगा तो उन उपाधियोंके उपाधिरूप विशेषणोंको भी सत्यपना प्राप्त होनेका प्रसंग होगा। ऐसी दशामें उपाधि और उस उपाधिवाले उपाधिवान् की कहीं भी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। अर्थात् जैसे कि जपाके फूलमें रक्तता स्वभावसे है और स्फटिक की रक्तिमा उपाधिके वश है, यदि जपापुप्पमें भी रक्तिमा अन्य उपाधिसे मान ली जावे तो उपाधि और उपाधिवान्की ठीक अवस्थिति न बनेगी। यदि उन उपाधियोंकी उपाधियोंको असत्य मनोगे तब तो सबसे पहिले मूलमें पडी हुयी उपाधियोंको भी असत्यपनेका प्रसङ्ग प्राप्त हो जाओ ! भावार्थ-बढिया घोडा, इष्टकुण्डल, गहरी सुगन्ध, अधिक मीठा, शीघ्र चलना, आदिमें बढिया, इष्टता, शीघ्र, आदि उपाधियां तो उन जाति आदिकी उपाधियां हैं । " भीखमेंसे भीख" की नीतिसे दूसरी उपाधियोंको यदि निःसार माना जावेगा तो पहिली ही कोटिपर मूल उपाधियोंको भी झूठपना ठहरता है । उपाधिरूपी फटाटोप झूठा होता है । असार पदार्थका प्रायः आडम्बर महान् होता है। कांसेकीसी ध्वनि सोनेमें नहीं है। जितना ही चढा बढाकर दिखाऊ ऊपरी ढंग है, उतनी ही नीचे पोल समझना। किसीने कहा भी है कि " असारस्य पदार्थस्य प्रायेणाडम्बरो महान् । नहि स्वर्णे ध्वनिस्तादृग् यादृक् कांस्यात् प्रजायते" न चासत्यानामुपाधीनां प्रकाशकाः शब्दाः सत्या नाम निर्विषयत्वात् । ततः सविषयत्वं शब्दस्येच्छता स्वरूपमात्रविषयत्वमेषितव्यं, तस्य तत्राव्यभिचारात् । जात्यादिशब्दानां तु जात्याद्यभावेऽपि भावाव्यभिचारदर्शनात् । न हि गौरव इत्यादयः शब्दा गोत्वाश्वत्वादिजात्यभावेऽपि वाहीकादौ न प्रवर्तन्ते । 20
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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