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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
साथ है, यानी केवल अनित्य स्वलक्षण ही शद्बका वाच्य नहीं है यही नहीं समझना । किन्तु नित्य द्रव्य भी शद्बका वाच्य नहीं है। किन्तु कह देनेसे पूर्वमें नहीं कहे गये भी विधि या निषेधपर विशेष बल पड जाता है ।
- स्यान्मतं, तत्र साकल्येन संकेतस्य करणमशक्तेः, । किं तर्हि कचिदेकर न चानन्व योस्य संकेतव्यवहारकालव्यापित्वान्नित्यत्वादिति । तदसंगतम् । कर्के संकेतितादश्वशब्दाच्छोणादौ प्रवृत्त्यभावप्रसंगात् तत्र तस्यानन्वयात् । न च प्रतिपाद्यप्रतिपादकाभ्यामध्यक्षादिना नित्येपि कर्के प्रतिपन्ने वाचकस्य संकेतकरणं किञ्चिदर्थ पुष्णाति प्रत्यक्षादेरेव तत्र प्रवृत्यादिसिद्धेः। स्वयं ताभ्यामप्रतिपन्ने तु कुतः संकेतो वाचकस्यातिप्रसंगात् ।.
शब्द्वका वाच्य अर्थ नित्य द्रव्यको माननेवालोंका सम्भवतः यदि यह मन्तव्य हो कि उस नित्य द्रव्यमें पूर्णरूपसे संकेत करना भलें ही अशक्य है तब तो फिर क्या किया जाय ? इसका उपाय यह है कि किसी एक व्यक्तिमें तो वाच्य वाचकका संकेत ग्रहण किया जा सकता है ऐसी दशामें अनुगत प्रतीतिरूप अन्वयका न मिलना नहीं है, जब कि अनुगत प्रतीतिका होनारूप अन्वय ठीक मिल रहा है । क्योंकि वह नित्यद्रव्य संकेत काल और व्यवहार कालमें नित्य होनेके कारण व्याप रहा है, ग्रन्थकार समझाते हैं कि इस प्रकार उनका कहना असंगत है। कारण कि शुक्ल घोडेमें संकेत किये गये अश्व शद्बसे लाल, बदामी, काले आदि घोडोंमें प्रवृत्ति करनेका अभाव हो जावेगा, उस श्वेत घोडेपनेका अन्वय उन लाल चितकबरे घोडोंमें नहीं है। द्रव्यका द्रव्यमें अन्यय नहीं होता है । हां! अश्वत्वरूप सदृश परिणामका अन्वय अनेक घोडोमें पाया जा सकता है, किन्तु आप द्रव्यवादी उस जातिको स्वीकार नहीं करते हैं । प्रतिपाद्य श्रोता और प्रतिपादक वक्ता करके प्रत्यक्ष अनुमान, आदि प्रमाणोंद्वारा नित्य द्रव्यरूप भी शुक्ल घोडेको जानलेनेपर उस वाचक अश्व शद्बका वहां संकेत करना 'किसी भी प्रयोजनको पुष्ट नहीं करता है । उस नित्य शुक्ल घोडेमें तो प्रत्यक्ष, अनुमान प्रमाणोंसे ही प्रवृत्ति निवृत्ति आदि व्यवहार होना सिद्ध है । जिस व्यक्तिको संकेतकालमें जाना है। उसी नित्य व्यक्तिको व्यवहार कालमें जाननेसे क्या लाभ निकला ? अर्थात् कुछ भी नहीं । शद्बोंका वाच्य अर्थोके साथ संकेत ग्रहण करना सदृश व्यक्तियोंके ज्ञान करानेमें उपयोगी है, अनेक गुणोंका पिण्डरूप शुद्धद्रव्य तो साधारण जीवोंको ज्ञेय नहीं है । जिस नित्यद्रव्यको उन प्रतिपाद्य और प्रतिपादकने ही स्वयं नहीं जाना है, उसमें तो किसी वाचक शद्वका संकेत ग्रहण भी भला कैसे हो सकता है ? अतिप्रसंग हो जावेगा । अर्थात् हम लोगोंके द्वारा अज्ञात भी परमाणु, पाप, पुण्य आदि अनेक पदार्थोंमें शद्बकी प्रवृत्ति होना बन बैठेगा, जो कि इष्ट नहीं है ।
केचिदाहुः--न नाना द्रव्यं नित्यं शद्धस्यार्थः किन्त्वेकमेव प्रधानं तस्यैवात्मा वस्तुस्वभावः शरीरं तत्त्वमित्यादिपर्यायशद्धैरभिधानात् । यथैकोयमात्मोदकं नामेत्यात्म
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