________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
Limakorewirrrrram
ग्रहण किया है यह युक्तिपूर्ण है । भावार्थ-प्रमाणोंके द्वारा जाने गये अर्थोका श्रदान करना सम्यग्दर्शन है । अनर्थोका श्रध्दान करते बैठना सम्यग्दर्शन नहीं है, किन्तु मिथ्यादर्शन है ।
कल्पितार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनमेवं स्यात्ततः सैवातिव्याप्तिरिति चेत् न, तस्वविशेषणात् । . इस प्रकार तो कल्पना किये गये पदार्थोंका श्रध्दान करना भी सम्यग्दर्शन ही होजावेगा । अर्थ कहनेसे कल्पित अर्थ भी पकडे जासकते हैं । इस कारण फिर भी वही अतिव्याप्ति दोष बना रहा । ऐसा तो नहीं कहना चाहिये । क्योंकि लक्षणमें अर्थका विशेषण “ तत्त्व " दे रखा है अर्थात् वास्तविक रूपपनेसे तत्त्व निर्णीत हैं, उनका श्रध्दान करना सम्यग्दर्शन है । कल्पना किये गये अतत्त्वरूप अर्थोका श्रदान करना तो मिथ्यादर्शन है।
नन्वर्थग्रहणादेव कल्पितार्थनिवृत्तेस्तस्यानर्थत्वाव्यर्थ तत्त्वविशेषणमिति चेत् न, घनत्रयोजनाभिधेयविशेषाभावानामर्थशब्दवाच्यानां ग्रहणप्रसङ्गात्, न च तेषां श्रद्धानं सम्यग्दर्शनस्य लक्षणं युक्तं, धर्मादर्थो धनमिति श्रद्दधानस्याभव्यादेरपि सम्यग्दर्शनप्रसक्तः ।
यह आक्षेप सहित शंका है कि जब अकेले अर्थके ग्रहण करनेसे ही कल्पित अर्थोका निषारण होजाता है । क्योंकि वह कल्पित अर्थ वास्तविक अर्थ नहीं है। किंतु अनर्थ है, तो फिर उसके निवारण करनेके लिये अर्थका तत्त्व विशेषण देना व्यर्थ ही है । सिध्दान्ती कहते हैं कि ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अर्थ शद्बके वस्तुके सिवाय धन, प्रयोजन, वाच्य, विशेष, अभाव (निवृत्ति ) भी कई वाच्यार्थ होजाते हैं । यदि अर्थका विशेषण तत्त्व न लगाया जावेगा तो केवल अर्थशद्वसे धन आदिकके ग्रहण करनेका भी प्रसंग हो जावेगा और उन धन आदिका श्रध्दान करना सम्यग्दर्शनका लक्षण बनाना युक्त नहीं है । क्योंक धर्मसे अर्थ यानी धन प्राप्त होता है, इस प्रकार नीति वाक्य द्वारा धनका श्रद्धान करते हुए अभव्य, दूर भव्य अथवा मिथ्यादृष्टिओंके या सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि इन भव्योंके भी सम्यग्दर्शन हो जानेका प्रसंग होगा ।
"कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान्न धार्मिक" इति प्रयोजनवाचिनोऽर्थ शद्वात् प्रयोजनं श्रद्दधतोऽपि सदृष्टित्वापत्तेः ।
नीतिपुस्तकमें लिखा हुआ है कि ऐसे उत्पन्न हुए पुत्रसे क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? जो कि विद्वान् नहीं है और धार्मिक भी नहीं है । यहां प्रयोजनको कहनेवाले अर्थ शबसे प्रयोजनरूप अर्थका श्रद्धान करनेवाले जीवको भी सम्यग्दृष्टिपना प्राप्त हो जावेगा । जो कि यह आपत्ति इष्ट नहीं है । हां! रत्नत्रयको या संयमको आत्मसंबन्धी धन माननेका अथवा केवलज्ञान या मोक्षको अपना प्रयोजन माननेका श्रद्धान करता तो कुछ सम्यग्दृष्टिपनमें सहायता भी प्राप्त हो सकती थी। किंतु रागद्वेषवर्धक पदार्थोमें धन, प्रयोजनका विश्वास करना तो मिथ्यादर्शन है, ऐसा सभी मानते हैं।