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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
अविद्या क्या वस्तुभूत अर्थ है ? :अथवा क्या अवस्तुरूप अनर्थ है ? बतलाइये । यदि अविद्याको वास्तविक अर्थ मानोगे, तब इस अविद्याको कारण मानकर होनेवाला व्यवहार भला अवास्तविक कैसे हो जावेगा ? जैसे कि “ सब अर्थरूप ही हैं", इस प्रकार आपके एकान्तका व्यवहार वस्तुरपर्शी है, वैसे ही वस्तुभूत अविद्यासे उत्पन्न हुआ सब अनर्थ ही हैं, यह व्यवहार भी परमार्थभूत होगा । यदि आप दूसरे पक्षअनुसार उस अविद्याविशेषको अनर्थरूप मानोगे तो सब अर्थ ही हैं, इस प्रकारका एकान्त कैसे सिद्ध होगा ? कहिये, क्योंकि इसी समय आप अविद्याको अनर्थरूप कह चुके हैं। इस प्रकार बडी दक्षताके साथ आचार्य महाराजने अनर्थको न मानकर सबको अर्थ माननेवाले एकांतवादीका मंतव्य खण्डन कर दिया है। .
सर्वोनर्थ एवेत्येकांतोपि न साधीयान् , तद्यवस्थापकस्यानर्थत्वे ततस्तत्सिध्ययोगादर्यत्वे सर्वानर्थतैकांतहाने। ___ उक्त एकान्तसे सर्वथा विपरीत किसीका यह एकान्त है कि सर्व ही पदार्थ संसारमें अनर्थरूप हैं। किसीसे भी किसीका स्वार्थ नहीं साधता है। विचार करनेपर अन्तमें सब झूठे पडते हैं। फिर किस का श्रध्दान करोगे ? आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकारका एकान्त भी अच्छा नहीं है ! क्योंकि सब अनर्थ ही हैं। इसकी व्यवस्था करनेवाले उस प्रमाणको या वाक्यको भी अनर्थरूप मानोगे तो निरर्थक उस प्रमाण या वाक्यसे उस अनर्थपनेके एकांतकी सिध्दि न हो सकेगी । और यदि उस अनर्थपनेकी व्यवस्था करनेवाले प्रमाणको परमार्थस्वरूप मानोगे तब तो सबको अनर्थपना माननेके एकांतकी हानि होती है। क्योंकि अभी आपने उसके व्यवस्थापकको अर्थ मान लिया है । " इतो व्याघ्र इतस्तटी " एक ओरसे व्याघ्र आ रहा है और दूसरी ओर गहरी नदी है, इस नीतिके अनुसार आपका स्वपक्षमें स्थिर रहना असम्भव है । ___संविन्मात्रमर्थानर्थविभागरहितमित्यपि न श्रेयः, सविन्मात्रस्यैवार्थत्वात्ततोन्यस्यानर्थत्वसिद्धः। सर्वस्याप्यर्थानर्थविभागसिद्धेरवश्यंभावाद्युक्तमर्थग्रहणमनर्यश्रदाननिवृत्त्यर्थम् ।
शुध्दज्ञानाद्वैतवादी कहते हैं कि संसारमें न कोई अर्थ है और न कोई अनर्थ है। केवल शुध्द संवेदन ( विज्ञान ) ही है। वह अर्थ और अनर्थके विभागसे रहित है अर्थात् उसको अर्थरूप या अनर्थरूप कुछ भी नहीं कह सकते हैं। ग्रंथकार कहते हैं कि इस प्रकार कहना भी कल्याणकारी नहीं है। क्योंकि यों तो आपका माना हुआ केवल संवेदन ही अर्थ हो जाता है और उससे अन्य घट, पट आदि द्वैतोंको अनर्थपना सिध्द हो जावेगा। इस कारण सभी पदार्थोको बिवक्षासे अर्थपने और अनर्थपनेका विभाग करना. अवश्य ही सिध्द हो जाता है, अथवा सर्व ही वादियों करके अभीष्ट पदार्थको अर्थपनेकी और अनिष्ट पदार्थोके अनर्थपनेकी व्यवस्था मानी जाती है । अतः मूलसूत्रकारने मिथ्याज्ञानोंसे जाने गये अनर्थोके श्रध्दानकी निवृत्ति के लिये सम्यग्दर्शनके निर्दोष लक्षणमें अर्थका