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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
शद्धादेव प्रतीयमानं शद्वार्थमभिप्रेत्य शद्धलक्षितात्सामान्याल्लिंगात् प्रतीयमानां व्यक्तिं शद्वार्थमाचक्षाणः कथं स्वस्थः, परम्परया शद्वात्प्रतीयमानत्वात्तस्याः शद्बार्थत्वेशार्थतां कथं बाध्यते तथाक्षेणापि प्रतीयमानत्वादुपचारस्योभयत्राविशेषात् ।
शब्द हीसे जाने हुए पदार्थको शब्दका अर्थ मान कर यों कहनेवाले पुरुष कैसे स्वस्थ (होशमें) हो सकेंगे कि शद्वसे लक्षणा और अभिधावृत्तिके द्वारा जातिका वाचन होता है और जाति से हेतुके द्वारा व्यक्तिकी प्रतीति होती है । इस परम्परासे प्राप्त हुयी व्यक्तिकी वाच्यता तो शद्बसे कही गयी मानी जावे यह कोरा मत्तप्रलाप है । यदि परम्परासे शद्वके द्वारा व्यक्तिकी प्रतीति हुयी है, अतः उस व्यक्तिको शवका वाच्यार्थ माना जावेगा तब तो उस व्यक्तिको इन्द्रियोंका विषयपना कैसे वाचित हो सकेगा ?, क्योंकि तिसी प्रकार परम्परासे इन्द्रियोंके द्वारा भी शद्ब और जातिको बीचमें देकर उस व्यक्तिकी प्रतीति हुयी है । वास्तवमें देखा जावे तो वह व्यक्ति शद्वका वाच्य अर्थ नहीं है, किन्तु अनुमान प्रमाणका विषय है । धन ही प्राण हैं इस कथनमें धन अन्नका कारण है और अन्न प्राणका कारण है । यहां कारणके कारणमें जैसे कार्यपनेका उपचार है तिसी प्रकार यदि ज्ञापकमें भी विषयपनेका उपचार किया जावेगा तब तो ज्ञापकके ज्ञापकमें भी उपचार किया जा सकता है उपचार करना दोनों स्थलोंपर समान है । एक जातिको बीचमें देकर या शद्ब और जाति दो को बीच में देकर कल्पना करना एकसा है । अन्न में प्राणका उपचार कर देनेके समान धनमें भी प्राणका उपचार ( व्यवहार ) हो सकता है । ऐसी दशामें शवका वाच्य अर्थ स्वतन्त्र कोई नहीं ठहरता है । शद्वको मध्यमें अनुमानकी शरण लेनी पडती है।
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न च लक्षितलक्षणयापि शब्दव्यक्तौ प्रवृत्तिः संभवतीत्याह -
एक बात यह भी है कि द्विरेफके समान अर्थात् दो रेफवाला शद्व भ्रमर ही पकडा जाय रामचन्द्र प्रेमचन्द्र नहीं, यों द्विरेफ शद्वकी लक्षणा भ्रमर पदमें और पुनः भ्रमर शद्वसे मधुकर अर्थ लक्षित किया जाय ऐसी लक्षितलक्षणा करके भी शद्वके द्वारा किसी प्रकृत व्यक्तिमें प्रवृत्ति होना नहीं संभवता है । इसको आचार्य महाराज स्पष्ट कर अग्रिमवार्त्तिक में कहते हैं ।
शद्वप्रतीतया जात्या न च व्यक्तिः स्वरूपतः । प्रत्येतुं शक्यते तस्याः सामान्याकारतो गतेः ॥ २१ ॥ व्यक्तिसामान्यतो व्यक्तिप्रतीत वनवस्थितेः ।
क्व विशेषे प्रवृत्तिः स्यात्पारम्पर्येण शद्वतः ॥ २२ ॥
शद्वके द्वारा साक्षात् निर्णीत की गयी जाति करके अपने स्वरूपसे व्यक्ति ( विशिष्ट एक
पदार्थ ) की प्रतीति नहीं कर सकते हो, क्योंकि उस व्यक्तिका सामान्य विकल्पोंसे ही ज्ञान हुआ है ।