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तत्वार्थ लोकवार्तिके
इन दोको बीचमें देकर श्रोत्रकी विषयता भी आगमगम्य व्यक्तियोंमें आजावेगी । परम्पराकी प्रतीति होना आपको सह्य है ही ।
तथानुमानार्थाः करणेन प्रतीतालिंगिनि ज्ञानोत्पत्तेः ।
और यों तो तिस प्रकार अनुमान प्रमाणसे जानने योग्य विषय भी इन्द्रियोंके विषयभूत अर्थही कहे जावें । क्योंकि चक्षुः, स्पर्शन, आदि इन्द्रियोंके द्वारा निर्णीत किये गये अविनाभावी हेतु से हेतुवाले साध्य में ज्ञान उत्पन्न होता है, यहां भी परम्परासे अनुमेय अर्थमें इन्द्रियोंकी विषयता प्राप्त हो जाओ ! इन्द्रियोंसे हेतुको जाना और हेतुसे साध्यको जाना है । स्वज्ञाप्यज्ञाप्यत्व सम्बन्धसे इन्द्रि - योका विषय साध्य हो जाता है । किन्तु अनुमानसे जानने योग्य विषयको बाहिरिन्द्रयजन्य प्रत्यक्षका विषय किसीने भी इष्ट नहीं किया है । प्रमाणसंप्लवकी रीति तो अन्य प्रकार है ।
एतेनार्थापत्त्यादिपरिच्छेद्यस्यार्थस्याक्षार्थताप्रसक्तिर्व्याख्याता, पारम्पर्येणाक्षात्परिच्छिद्यमानत्वाविशेषादित्यक्षार्थ एव शद्धो निर्बाधः स्यान्न शद्बाद्यर्थः सामान्यशद्धार्थवादिनो न चैवं प्रसिद्धः ।
इस उक्त कथनसे यह भी व्याख्यान कर दिया गया कि मीमांसकोंके द्वारा स्वतन्त्र प्रमाणपने से मानी गयी और जैनोंके यहां अनुमान प्रमाणमें गर्भित की गयी अर्थापत्ति तथा नैयायिक और मीमांसकों द्वारा स्वतन्त्र प्रमाणपने से माना गया एवं जैनोंके यहां प्रत्यभिज्ञान प्रमाणमें अन्तर्भूत किया गया उपमान प्रमाण, इसी प्रकार सम्भव ऐतिह्य, प्रतिभा आदि प्रमाणोंसे जानने योग्य विषयको भी इन्द्रयोंकी विषयता प्राप्त हो जावेगी । क्योंकि अर्थापत्ति आदि प्रमाणोंका उत्थान भी पहिले इन्द्रियोंसे पदार्थोंको जान लेनेपर पीछेसे होता है । अतः अर्थापत्तिगम्य पदार्थका भी परम्परा करके इन्द्रियोंसे सम्बन्ध है । देवदत्तका पुष्टपना आंखों या स्पार्शनइन्द्रियसे जान लेनेपर पश्चात् रात्रिभोजनका ज्ञान अर्थापत्ति से हो जाता है । ऐसे ही उपमान श्रुतज्ञान आदिमं पहिले इन्द्रियोंसे ज्ञापकोंके जाननेकी आवश्यकता है । मन इन्द्रियकी अनेक ज्ञानोंमें आवश्यकता है । परम्परा करके इन्द्रियोंसे जान लिया यापन तो विशेषता रहित होकर सम्पूर्ण क्षायोपशमिक ज्ञानके विषयोंमें विद्यमान है। इस कारण शद्व और शब्दका वाच्य अर्थ बाधारहित होकर इन्द्रियोंका विषय ही हो जावेगा, ऐसी दशामें शद्व, हेतु, सादृश्य, अर्थापत्त्युत्थापक आदिके द्वारा जानने योग्य अर्थ कोई न हो सकेंगे । जातिको शङ्खका अर्थ कहनेवाले मीमांसक के यहां शब्द आदिकके स्वतन्त्र विषय कोई नहीं बन सकेंगे, किन्तु इस प्रकारका सिद्धान्त प्रसिद्ध नहीं है । भावार्थ — इन्द्रियोंके विषय न्यारे हैं तथा हेतु, शद, आदि के गोचर पदार्थ स्वतंत्र होकर निराले माने गये हैं । यही सम्पूर्ण दार्शनिकोंकी पद्धति हैं ।
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यद्यस्पष्टावभासित्वाच्छद्वार्थः कश्चनेष्यते ।
लिंगार्थोऽपि तदा प्राप्तः शद्वार्थो नान्यथा स्थितिः ॥ १९ ॥