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तत्वार्थ लोकवार्त
नियम कर रहे हैं, दर्शनके द्वारा नहीं । ज्ञानका कार्य आलोचन करना नहीं है और दर्शनका कार्य जान लेना नहीं है । दोनों भिन्न पर्याये हैं । दोनोंके ज्ञेय और दृश्य विषय भी न्यारे नियत हैं ।
प्रथममवग्रहे सामान्यस्यैव प्रतिभासनान्नोभयप्रत्ययः सर्वत्रेति चायुक्तं, वर्णसंस्थानादिसमानपरिणामात्मनो वस्तुनोऽर्थान्तराद्विसदृशपरिणामात्मनश्चावग्रहे प्रतिभासनात् ।
कोई कटाक्ष करता है कि जैनोंके यहां सबसे प्रथम हुए अवग्रहमें वस्तु के सामान्य धर्मोका - ही प्रतिभास होता है विशेषों का नहीं । अतः सभी ज्ञानोंमें दोनोंकी प्रतीति नहीं हुयी । अब आचार्य कहते हैं कि हम जैनोंके ऊपर किसीका यह कहना अयुक्त है । क्योंकि रूप, रस, तथा आकृति, रचना आदि समान परिणामस्वरूप वस्तुका और अन्य पदार्थोंकी अपेक्षासे प्राप्त हुए विसदृश परिणाम स्वरूप उसी वस्तुका अवग्रह में प्रतिभास होता है । अवग्रहके द्वारा एक मनुष्यको जाननेपर उसके 1 रूप, आकार, सिर, वक्षःस्थल आदि जो कि अन्य मनुष्यों में भी वैसे पाये जायं ऐसे सदृश परिणामोंको हम जान लेते हैं और उसी समय पशु, पक्षियों या अन्य सजातीय पुरुषोंकी अपेक्षासे विशेषपना भी उस मनुष्यमें जान लिया जाता है । अतः गौ या मनुष्यके अवग्रह करनेपर सामान्य और विशेष दोनों धर्म युगपत् प्रतीत हो जाते हैं। किसी भी ज्ञानमें अकेले सामान्यका या केवल विशेषका तो प्रतिभास होता ही नहीं है, इसका विश्वास रखो । संशयज्ञानमें भी यथायोग्य दोनों प्रतिभासते हैं । बोलो अब क्या चाहिये ? |
कचिदुभयप्रत्ययासत्वेपि वा न वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वविरोधः, प्रतिपुरुषं क्षयोपशमविशेषापेक्षया प्रत्ययस्याविर्भावात् । यथा वस्तुस्वभावं प्रत्ययोत्पत्तौ कस्यचिदनाद्यन्तवस्तुप्रत्ययप्रसंगात् परस्य स्वर्गप्रापणशक्त्यादिनिर्णयानुषंगात् ।
किसी किसी अप्रमाणरूप ज्ञानमें या चलाकर एकको ही जाननेवाले उठाये गये झुंठे आहार्य ज्ञानमें यदि सामान्य और विशेष दोनोंकी प्रतीति न होवे तो भी वस्तुके सामान्य और विशेष दोनों धर्म स्वरूपपनेका विरोध नहीं है । प्रत्येक जीवमें विशिष्ट क्षयोपशमकी अपेक्षासे भिन्न भिन्न प्रकार के ज्ञानोंकी उत्पत्ति हो जाती है । एक भींतका परला भाग न दीखनेसे उस भित्तिके परभागका अभाव नहीं हो जाता है । चाहे जिस भोंदू जीवके ज्ञानकी अपेक्षासे वस्तुभूत अर्थीकी व्यवस्था नहीं मानी है । प्रमाणज्ञानोंसे प्रमेयकी व्यवस्था होती है । शश ( खरगोश) के आंख मींच लेनेपर उसके विचारानुसार दृश्य जगत्का अभाव नहीं सिद्ध हो जाता है । हम अनेक प्रकार जीवोंके ज्ञानोंको कहांतक सम्हालते रहेंगे। कोई सीपको चांदी जानता है और कोई पीतलको सुवर्ण जान रहा है। एतावता वस्तुभूत पदार्थका परिवर्तन नहीं हो जाता है । ज्ञेयके अधीन ज्ञानका होना नहीं हैं । किन्तु क्षयोपशमोंके अधीन झूठा सच्चा ज्ञान है । प्रत्येक जीवमें विशेष क्षयोपशमकी अपेक्षासे ज्ञान उत्पन्न हुआ करते हैं । वस्तुके स्वभावोंका अतिक्रमण नहीं करके यदि ज्ञानकी उत्पत्ति मानी जावेगी, यानी जैसी वस्तु होगी वैसा हूबहू ज्ञान उत्पन्न होवे तब तो चाहे जिस
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