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तत्वार्थचिन्तामणिः
बौद्ध फिर भी बोलते हैं कि वस्तुके विशेष वास्तविक हैं । जपाकुसुमके सम्बन्धसे स्फटिक में आयी हुयी लालिमाके समान औपाधिक नहीं है। क्योंकि विशेषोंके जाननेके लिये चलाकर प्रयत्नसे ज्ञान करना नहीं देखा जाता है, वे वस्तुमें स्वयं ही झटिति प्रतीत हो जाते हैं। आचार्य समझाते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तब तो तिस ही कारण सामान्य भी औपाधिक न होवे । क्योंकि सामान्य भी परिश्रम से उठाए हुए नवीन ज्ञानके द्वारा नहीं जाना जाता है । किन्तु स्वयं उत्थित ज्ञानसे विना प्रयतके ही वस्तुमें शीघ्र जान लिया जाता है । यदि कोई यों कहें कि सामान्य और विशेष दोनोंको वस्तुका स्वभाव मानोगे तब तो सर्व ही विषयोंमें सामान्य और विशेष दोनोंके ज्ञान होनेका प्रसंग होगा । ऐसा कहनेपर तो हम पूंछते हैं कि फिर क्या उन दोनोंमेंसे एक हीका कहीं ज्ञान होना देखा गया है ? बताओ न । भावार्थ - सभी स्थलोंपर दोनोंका ही एक साथ ज्ञान हो जाता है । अकेले अकेलेका नहीं, अतः दोनों ही वस्तुके तदात्मक अंश हैं ।
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दर्शनकाले सामान्यप्रत्ययस्याभावाद्विशेषप्रत्यय एवास्तीति चेत् न, तदापि सद्द्रव्यत्वादिसामान्यप्रत्ययस्य सद्भावादुभयप्रत्ययसिद्धेः । प्रथममेकां गां पश्यन्नपि हि सदादिना सादृश्यं तत्रार्थान्तरेण व्यवस्यत्येव अन्यथा तदभावप्रसंगात् ।
: बौद्ध कहते हैं कि स्वलक्षणको जाननेवाले निर्विकल्पक प्रत्यक्षरूप दर्शनके समयमें सामान्य को जाननेवाले ज्ञानका अभाव है । अतः वहां केवल विशेषका हीं ज्ञान होता है । फिर आप जैनोंने कैसे कहा था कि दोनोंमेंसे एकका ज्ञान कहीं होता है क्या ? ग्रन्थकार बोलते हैं कि इस प्रकार तो बौद्धोंको नहीं कहना चाहिए। क्योंकि उस समय भी सत्पने, द्रव्यपने, पदार्थपने आदि सामान्योंको जाननेवाला ज्ञान विद्यमान है । अतः सामान्य और विशेष दोनोंको जान लेना निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें भी सिद्ध हो जाता है । सबसे पहिले एक गौको देखनेवाला पुरुष भी सत्पना, द्रव्यपना, पदार्थपना आदि धर्मो करके दूसरे घट, अश्व आदि पदार्थोंके साथ सादृश्यका वहां निश्चय कर ही लेता है । अन्यथा उस सदृशपनेके अभावका प्रसंग हो जावेगा । भावार्थ गौको जानने वाला पुरुष भले ही मुखसे गौ गौ ऐसा कहता रहे, किन्तु साथमें उस गौफी विशेषताओंको जैसे जान लेता है, वैसे ही अन्य गौओंके साथ सदृशपने और सत्व, द्रव्यत्व, पदार्थत्व करके भैंस, घोडे आदिके सादृश्यको भी श्रुतज्ञानसे जान लेता है । यों तो सामान्यधर्म और विशेषधर्मोका पिण्ड़ ही वस्तु है । अतः सामान्यका प्रत्यक्ष ही हो जाता है। फिर भी सामान्यपनेकी विकल्पनासे सादृश्य भी जान लिया जाता है। अर्थापत्ति, अनुमान, मतिज्ञान, संकलन हो जाता है । प्रत्येक ज्ञानमें सामान्य, विशेष दोनोंका ही एकका मुख्यरूपसे और दूसरेका गौणरूपसे ज्ञान होवे । अकेलेका ज्ञान कहीं नहीं होता है । हम जैनोंके द्वारा माने गये चक्षुर्दर्शन अचक्षुर्दर्शनमें केवल सत्ताफा आलोचन होता है, विशेषोंका नहीं । किन्तु वे तो दर्शन हैं, ज्ञान नहीं हैं । हम तो ज्ञानसे सामान्य, विशेष दोनोंके जानने का
श्रुतज्ञानके विषयोंका परस्पर में
प्रतिभास होता है । भलें ही
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