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तत्वार्थ लोकवार्त
सोऽपेि हेतुः कुतः परिमितास्वेव व्यक्तिषु स्यादिति समानः पर्यनुयोगः स्वहेतोरिति चेत्सोपि कुत इत्यनिष्ठानं ।
नैयायिक लोग जाति, आकृति और व्यक्ति इन तीनको पदका वाच्य अर्थ मानते हैं । "" जात्याकृतिव्यक्तयः पदार्थः " गो शद्वसे गोत्व जाति तथा गौका आकार ( रचना विशेष ) और गो व्यक्ति कही जाती हैं । केवल आकृतिको ही पदका वाच्य अर्थ मानने वाले कहते हैं कि उस अन्वय सहित समानज्ञानका विषय तो रचना विशेष कहा जाता है । ऐसा कहने पर तो हम जैन पूंछेगे कि वह रचनाविशेष परिमित ही कतिपय व्यक्तियोंमें कैसे है ? किन्तु फिर अन्य व्यक्तिओं में क्यों नहीं है ? बताओ । अर्थात् वह गौकी रचना अनेक सजातीय गौओंमें है । रोझ, ऊंट, आदि में नहीं है । उत्तर दीजिये । इसके उत्तरमें यदि आप यों कहेंगे कि अपने अपने कारणोंके वश वह विशेष रचना परिमित व्यक्तियोंमें ही हुयी है अन्य सबमें नहीं। ऐसा कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि वह अपना अपना हेतु ही उस समान ज्ञानका विषय हो जाओ ! बीचमें सन्निवेशके क्या लाभ है ? सिरके चारों ओर हाथको घुमाकर नाक पकडनेसे सीधे ढंगसे नाक पकडना अच्छा है । दूसरी बात यह है कि उस रचना विशेषका कारण वह हेतु भी गिनती की गई हुयीं ही कुछ व्यक्तियोंमें क्यों है ? अन्य महिष आदिक व्यक्तियोंमें क्यों नहीं । इस प्रकारका प्रश्न उठाना तुम्हारे ऊपर भी समानरूपसे लागू होता है । पुनः उस हेतुके लिये भी अपने अन्य हेतुको नियामक मानोगे तो फिर भी वही प्रश्न उठाया जावेगा। यानी वह हेतु भी किससे और क्यों विशिष्ट हेतुका जनक है ! कहिये । इस प्रकार अनवस्था हो जायगी ।
पर्यन्ते नित्यो हेतुरुपेयते, अनवस्थानपरिहरणसमर्थ इति चेत् प्रथमत एव सोऽभ्युपेयतां सन्निवेशविशेषप्रसवाय । सोपि कुतः परिमितास्वेव व्यक्तिषु सन्निवेशविशेषं प्रसूते न पुनरन्यास्विति वाच्यम् । स्वभावात् तादृशात्सामर्थ्याद्वा व्यपदेश्यादिति चेत् तर्हि तेन वाग्गोचरातीतेन स्वभावेन सामर्थ्येन वा वचनमार्गावतारिवस्तुनिबन्धना लोकयात्रा प्रवर्तत इति । समभ्यधायि भर्तृहरिणा " स्वभावो व्यपदेश्यो वा सामर्थ्य वावतिष्ठते । सर्वस्यान्ते यतस्तस्माद्व्यवहारो न कल्पते " इति । तस्माद्वाग्गोचरवस्तुनिबन्धनं लोकव्यवहारमनुरुध्य मानैर्व्यपदेश्यैव जातिः सदृशपरिणामलक्षणा स्फुटमेषितव्या ।
कुछ कोटि चलते हुए अन्तमें जाकर अनवस्था दोषके परिहार करने में समर्थ होरहे नित्य हेतुको हम स्वीकार करते हैं । यदि ऐसा कहोगे तो विशेष रचनाको उत्पन्न करनेके लिये पहिले से ही वह नित्य हेतु स्वीकार कर लिया जावे । जातिरूप नित्य हेतुके माननेपर भी हमारा वहीं प्रश्न चल सकता है कि वह नित्य हेतु भी परिमाण की गयीं कुछ नियत व्यक्तियों (गो मात्र ) में ही रचना विशेषको क्यों उत्पन्न करता है ? किन्तु फिर अन्य व्यक्तिओंमें क्यों नहीं उत्पन्न