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तत्वार्थचिन्तामणिः
ऐसा माननेपर तो तुमको भी अनवस्था दोष होगा । उस अनवस्थाके वारणके लिये विशेष परिणामोंकी विशिष्टताको अपने आप ही होता हुआ मानोगे, तब तो सभी विशेष व्यक्तियोंमें विसदृश परिणामकी लम्बी कल्पना करना व्यर्थ है, क्योंकि विसदृश परिणामके माने विना भी अपने आप विशेष ज्ञान हो जावेगा, अर्थात् जैसे आपने समान परिणामको माननेमें हमको दोष दिया है, वैसा ही अनवस्था और वैयर्थ्यदोष आपके विसदृश परिणाममें भी लागू होते हैं।
__ स्वकारणादुपजाताः सर्वे विसदृशप्रत्ययविषयाः स्वभावत एवेति चेत्, समानप्रत्ययविषयास्ते स्वभावतः स्वकारणादुपजायमानाः किं नानुमन्यते तथा प्रतीत्यपलापे फलाभावात् । केवलं स्वस्वभावो विशेषप्रत्ययविषयोऽर्थानां विसदृशपरिणामः, समानप्रत्ययविषयः सहपरिणाम इति व्यपदिश्यते न पुनरव्यपदेश्यः । सामर्थ्य वा तत्तादृशमिति पर्यन्ते व्यवस्थापयितुं युक्तं, ततो लोकयात्रायाः प्रवृत्त्यनुपपत्तेः।
अपने अपने कारणोंसे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण अर्थ विचारे स्वभावसे ही विसदृशज्ञानके विषय हो रहे हैं, ऐसा कहोगे तो अपने अपने कारणोंसे उत्पन्न हो रहे वे गौ, घट, आदि पदार्थ भी स्वभावसे ही समान इस ज्ञानके विषय हैं, यह क्यों नहीं मान लिया जाता है । तैसी प्रसिद्ध प्रतीतिके छिपानेमें कोई फल नहीं है, बात इतनी ही है कि विशेष परिणामके समान सादृश्य परिणाम भी अपने ज्ञानका विषय हो रहा है। सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तुके निज स्वभाव हैं । केवल वस्तुका अपना स्वभाव जो पदार्थोके विशेषज्ञानका विषय हो रहा है वह अंश विसदृश परिणाम है,
और जो वस्तुका अपना तदात्मक स्वभाव पदार्थोके समानज्ञानका गोचर हो रहा है वह अंश सदृश परिणाम, ऐसा कहा जाता है, किन्तु वह स्वभाव फिर सर्वथा अवाच्य नहीं है जैसा कि बौद्ध लोगोंने विशेष पदार्थको अवाच्य माना है वैसा विशेषपदार्थ या सामान्यपदार्थ अवाच्य नहीं है । मीमांसकोंके द्वारा मानी गयी वह वैसी सामर्थ्य ( शक्ति ) समानज्ञान करा देती है, इस प्रकार भी अन्तमें जाकर व्यवस्था करना युक्त नहीं है, क्योंकि उससे लोकयात्रा ( व्यवहार ) की प्रवृत्ति न बन सकेगी। मीमांसक लोग गो इस पदकी शक्ति गोत्व जातिमें स्वीकार करते हैं, यानी गो शद्बका वाच्य गोत्व जाति है, किन्तु लोकमें देखा जाता है कि बोझ लादना, गाडी खींचना, दूध देना, व्याना आदि क्रियाओंमें गो व्यक्ति उपयोगी है । गोत्व जाति नहीं । शद्वजन्य सम्पूर्ण व्यवहार सादृश्यकी मित्ति पर डटे हुए हैं, एकको जान लेनेपर सदृश शब्द द्वारा अनेकोंका ज्ञान हो जाता है । धूम आदि हेतु भी सादृश्य रखते हुए वहिज्ञानके साधन हैं, अतः बौद्ध और मीमांसकोंको लोकप्रवृत्तिके अनुसार सादृश्यको वास्तविक और वाध्य मानते हुए पदका अर्थ जान लेना चाहिये अन्य उपाय नहीं है।
सनिवेशविशेषस्तत्मत्ययविषयो व्यपदिश्यत इति चेत्, स कथं परिमितास्वेव व्यक्तिषु म पुमरन्यासु स्यात् । स्वहेतुक्शादिति चेत् स एव हेतुस्तत्सत्ययविषयोऽस्तु किं सभिवेशन, 24