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तत्वार्थचिन्तामणिः
नाम्नो वक्तुरभिप्रायो निमित्तं कथितं समम् । तस्मादन्यत्तु जात्यादिनिमित्तान्तरमिष्यते ॥२॥
नाम निक्षेपका सम्पूर्ण कारण वक्ताका अभिप्राय कहा गया है । पिता जैसे अपने पुत्रका नाम चाहे जो रख देता है। उसी प्रकार वक्ता लोकव्यवहारकी प्रसिद्धिके लिये गुणोंकी नहीं अपेक्षा रखता हुआ अपनी इच्छासे पदार्थोंमें नाम निक्षेप कर लेता है । और उस अभिप्रायसे भिन्न जाति, गुण, क्रिया, संयोगीद्रव्य, समवायीद्रव्य ये सब तो निमित्तान्तर माने गये हैं।
जातिद्वारेण शबो हि यो द्रव्यादिषु वर्तते। . जातिहेतुःस विज्ञेयो गौरश्वः इति शदवत् ॥ ३॥ जातावेव तु यत्संज्ञाकर्म तन्नाम मन्यते । तस्यामपरजात्यादिनिमित्तानामभावतः ॥ ४॥
अव्यभिचारी सदृशपने करके अनेक अर्थोका पिण्डरूप अर्थ जाति है। व्यक्तियोंसे अभिन्न होरहे सादृश्यरूप तिर्यक्सामान्यसे अनेक पदार्थोंका संग्रह कर लेना जातिका प्रयोजन है। इस जातिके द्वारा जो शब्द नियम करके द्रव्य, गुण, पर्यायों आदिमें ई रहे हैं, वह शब्दं जातिको निमित्त मानकर व्यवहृत हो रहा समझ लेना चाहिये । जैसे कि गौ, अश्व, गेहूं, चना, इन शब्दोंमें कहनेसे इन जातियोंसे युक्त पदार्थोका ग्रहण हो जाता है । जातिमें ही जो संज्ञाकर्म किया जाता है। वह तो जाति नामनिक्षेप माना जाता है । यहां जाति शब्दको केवल स्वकीय अंशरूप जातिके अभिप्रायकी अपेक्षा है । इससे भिन्न दूसरे बहिरंग जाति, गुण आदि निमित्तोंकी अपेक्षाका अभाव है । उस जातिमें पुनः दूसरी जातिकी आकांक्षा नहीं है।
गुणे कर्मणि वा नाम संज्ञा कर्म तथेष्यते। .. गुणकर्मान्तराभावाज्जातेरप्यनपेक्षणात् ॥ ५॥ गुणप्राधान्यतो वृत्तो द्रव्ये गुणनिमित्तकः । शुक्लः पाटल इत्यादिशब्दवत्संप्रतीयते ॥ ६॥ . कर्मप्राधान्यतस्तत्र कर्महेतुर्निबुध्यते। . चरति प्लवते यद्वत् कश्चिदित्यतिनिश्चितम् ॥ ७॥