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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
और सम्यक्चारित्र हो गये हैं, वे अवश्य मोक्ष और विशिष्ट स्वर्ग, विजय आदि विमानके कारण बन जाते हैं।
दृशेश्वालोचने स्थितिः प्रसिदा, दृशिन प्रेक्षणे इति वचनात् । तत्रं सम्यक् पखसीनेत्यादिकरणसाधनत्वादिव्यवस्थायां दर्शनशद्वनिरुक्तरिष्टलक्षणं सम्यग्दर्शन न सम्बत एव ततः प्रशस्तालोचनमात्रस्य लब्धः। न च तदेवेष्टमतिव्यापित्वादभव्यस्य मिथ्यारष्टेः प्रशस्तालोचनस्य सम्यग्दर्शनप्रसङ्गात् । ततः सूत्रकारोऽत्र "तत्त्वार्थश्रदान सम्यग्दर्शनम्" इति तल्लक्षणं ब्रवीति, तद्वचनमन्तरेणातिव्याप्ते परिहर्तुमचक्तेः।।
दृश् धातुकी सामान्यसे देखना रूप आलोचन अर्थमें स्थिति होना बाल गोपालोंतकमें प्रसिद्ध है । व्याकरणशास्त्रमें भी इसी प्रकार दृशिन् धातु देखने अर्थमें कही गयी है । वहां सम्यग्दर्शन शद्वकी करणमें युट् प्रत्यय करके सिद्ध करनेकी व्यवस्था होनेपर " समीचीन देखता है जिस करके" ऐसा निर्वचन करनेपर स्याद्वादसिद्धान्तके अनुसार सम्यग्दर्शनका अभीष्ट लक्षण प्राप्त नहीं होपाता है।
और भले प्रकार जो देखता है या भले प्रकार जो देखा जाता है, अथवा भले प्रकार देखना, ऐसी कर्ता, कर्म और भाव आदि अर्थोको साधनेवाली निरुक्तियोंसे भी व्यवस्थिति करनेपर शब्दकी सामर्थ्य करके सांकेतिक अर्थ कैसे भी नहीं निकलता है। उस युट् प्रत्ययान्त शब्दसे तो केवल प्रशंसनीय देखना ही अर्थ लब्ध होता है । यदि कोई यों कहे कि शद्बकी निरुक्तिसे जो अर्थ निकलता है, उसको ही आप स्याद्वादी लोग इष्ट कर लेवें, ऐसा करनेपर लक्षण सूत्र न बनाना पडनेसे लावव भी हो जावेगा । और प्रसिद्ध अर्थकी रक्षा भी हो जावेगी। इस पर आचार्य कहते हैं कि सो ऐसा हम इष्ट नहीं कर सकते हैं । क्यों कि इसमें अतिव्याप्ति दोष होगा। मिथ्यादृष्टि अभव्यके प्रशस्त देखना होनेके कारण सम्यग्दर्शन होजानेका प्रसंग हो जावेगा अर्थात् सर्व ही दार्शनिकोंने अनेक शब्द पारिभाषिक माने हैं। ऐसा माने बिना किसी भी विचारशील पुरुषका कार्य नहीं चल सकता है। व्याघ्र का निरुक्तिसे अर्थ विशेषरूप करके चारों ओरसे सूंघनेवाला है। वि-विशेषेण आसमन्तात् जिघ्रतीति व्याघ्रः। गौ श+का अर्थ गमन करनेवाला है, गच्छति इति गौः । इन अर्थोसे धोखा खाकर कतिपय हृदयशून्य वैयाकरण अनेक क्लेशोंको पा चुके हैं । कुशल शब्दका अर्थ घास काटनेवाला है। किंतु ऐसे अर्थ करनेसे परिडताईको भारी धक्का पहुंचता है । दूसरी बात यह है कि जब प्रयोजन ही नहीं बना तो ऐसी दशा में लाघव करना केवल तुच्छता है । सेर भर अन्न खानेवाले पुरुषको एक प्रास (कौर) खानेसे लाघव तो हो जाता है किंतु हृदयको तृप्ति नहीं होती है । इस कारण इस ग्रंथमें सूत्र बनानेवाले श्रीउमास्वामी महाराज तत्त्वार्थीका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, इस प्रकार उसके लक्षण सूत्रको कह रहे हैं। उस सूत्रके कहे बिना कोरी निरुक्तिसे होनेवाले अतिव्याप्ति दोषका परिहार करना अशक्य है, न्यायक्ता विद्वानोंका लक्ष्य अर्थकी ओर रहता है। कोरे शब्द आडम्बरपर नहीं। तभी तो संख्यात शद्बोंसे अनंत अर्थ निकल पडता है।