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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
है और मोक्ष गुणस्थानोंसे अतीत है । यदि कोई यों कहे कि जो ही आत्मा सम्बन्धी कर्मबन्धोंके क्षयका काल है और वही काल तो पुद्गलसे सर्वथा भिन्न होकर अकेले केवल आत्माका रह जाना नामक मोक्षके उत्पादका भी है, अतः यों तो निर्जरा और मोक्षका एक ही समय सिद्ध होता है । आपने दो समय कैसे कहे ? बताओ। आचार्य समझाते हैं कि यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेपर उस कर्मको निर्जराको अयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें वर्तनेका विरोध हो जावेगा । शंकाकारके कथनानुसार चौदहवेंके अन्तमें यदि मोक्ष होना माना जावे तो उसके पूर्व समयको ही यानी उपान्त्य समयको ही तिस प्रकार परमनिर्जराका काल कहनेका प्रसंग हो जायगा । यदि उस उपान्त्य समयमें होनेवाली परमनिर्जराको भी मोक्ष कहा जावेगा तो उससे भी पहिले समयमें परमनिर्जरा कहनी पडेगी । क्योंकि कार्यसे कारण एक समय पूर्वमें रहना चाहिये । प्रतिबन्धकोंका अभावरूप कारण भलें कार्यकालमें रहता होय, किन्तु प्रेरक या कारक कारण तो कार्यके पूर्व समयमें विद्यमान होने चाहिये, इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम आदि समयोंमें मोक्ष होनेका प्रसंग हो जावेगा, कुछ भी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अतः यही व्यवस्था होना ठीक है कि अयोगकेवलीका चरम समय ही परम निर्जराका काल है और उसके पीछेका समय ( काल ) मोक्षका है। यदि चौदहवेंके उस अन्त समयको ही मोक्षका काल कह दिया जावेगा तो मोक्षका भी चौदहवें या चौदह गुणस्थानोंके भीतर पड जानेका प्रसंग होगा। गुणस्थानोंसे अतिक्रान्तपना मोक्षको युक्त न हो सकेगा। परन्तु सिद्धान्तमें मोक्षका समय गुणस्थानोंसे बाहिर माना गया है। गोमट्टसार जीवकाण्डमें लिखा हुआ है कि " गुणजीवठाणरहिया सण्णापज्जत्तिपाणपरिहीणा। सेस णव मग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होंति ” सिद्ध अबस्था ही मुक्त अवस्था है।
लोकाग्रस्थानसमयवर्तिनो मोक्षस्यातीतगुणस्थानत्वं युक्तमेवेति चेत्, परमनिर्जरातोन्यत्वमपि तस्यास्तु निश्चयनयादस्यैव मोक्षत्वव्यवस्थानात् । ततः सूक्तो जीवादीनां क्रमो हेतुविशेषः।
आक्षेषकार कहता है कि लोकमें सबसे ऊपर अग्रिम स्थान तनुवातवलयमें सवा पांचसे (५२५) धनुष मोटा और पैंतालीस लाख लम्बा चौडा गोल सिद्ध लोक है, मनुष्य लोकसे जाकर उस स्थानमें पहुंचनेका काल मोक्षका काल है । अतः मोक्षको गुणस्थानोंसे अतिक्रान्तपना युक्त ही है, हम भी मानते हैं । आचार्य बोलते हैं कि यदि इस प्रकार कोई कहेंगे तो इसी कारण उस मोक्षको . परम निर्जरासे भिन्नपना भी हो जाओ। वास्तवमें देखा जावे तो निश्चय नयसे लोकके अग्रभागमें विराजमान होते समय ही मोक्षपनेकी व्यवस्था की गयी है और वह परम निर्जराके समयसे पीछे समयमें होनेवाला कार्य है । अतः परमनिर्जरासे मोक्ष तत्त्व भिन्न है, तिस कारण जीव आदिक सात तत्त्वोंके क्रमसे कथन करनेमें विशेषरूप करके हेतु अच्छे प्रकार कह दिये हैं । यहांतक उक्त चार वार्तिकोंका विवरण कर दिया है।