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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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गो शद्धकी प्रवृत्ति होनेका संकेत किया है वह पुरुष व्यवहार करते समय विद्यमान होगा, तब तो गो शबसे गौ रूप अर्थकी प्रतीति हो सकेगी। किन्तु संकेतकर शीघ्र मरजानेवाले मनुष्यको पीछे उस शद्बसे अर्थकी प्रतीति नहीं होती है । देवदत्तके संकेत ग्रहणसे यज्ञदत्तको अर्थकी प्राति नहीं होपाती है । अतः सिद्ध होता है कि अनेक क्षणोंतक ठहरनेवाले आत्माके लिये ही तत्त्वोपदेश उपयोगी है।
चैतन्यविशिष्टकायार्थस्तत्त्वोपदेश इति चेत्, तच्चैतन्यं कायात्तत्त्वान्तरमतत्त्वान्तरं वा ? प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता, बन्धं प्रत्येकतामापन्नयोः कायचैतन्ययोर्व्यवहारनयाज्जीवव्यपदेशसिद्धेः, निश्चयनयात्तु चैतन्यार्थ एव तत्त्वोपदेशः, चैतन्यशून्यस्य कायस्य तदर्थत्वाघटनात्। द्वितीयपक्षे तु कायानर्थान्तरभूतस्य चैतन्यस्य कायत्वात्काय एव तत्त्वोपदेशेनानुगृह्यत इत्यापन्नं, तच्चायुक्तमतिप्रसंगात् । ततो जीवार्थ एव तत्त्वोपदेश इति नासिद्धो हेतुः। ____ अब कोई चार्वाकका पक्ष लेते हुए कहते हैं कि चैतन्यसे सहित हो रहे शरीरके लिए तत्त्वोपदेश होता है । अतः शरीररूप अजीव तत्त्वका सूत्रमें सबसे पहिले प्रयोग करना चाहिये । जीवका नहीं । ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि आप शरीरको जिस चैतन्यसे सहित कह रहे हैं वह चैतन्य क्या शरीरसे भिन्न निराला स्वतंत्र तत्त्व है ? या शरीररूप ही चैतन्य है, अन्य तत्त्व नहीं ? बताओ। यदि आप पहिला पक्ष स्वीकार करेंगे तो आपके ऊपर सिद्धसाधन दोष होता है क्योंकि बन्धके प्रति एकताको प्राप्त हो रहे शरीर और चैतन्य दोनोंको व्यवहारनयसे जीव ऐसा नामकथन सिद्ध होरहा है। भावार्थ-जितने संसारी जीव हैं वे सभी शरीर और आत्मा दो द्रव्योंसे मिलकर बना हुआ अशुद्ध द्रव्यरूप पदार्थ है । दो द्रव्योंका बन्ध हो जानेपर दोनों अपने स्वभावसे च्युत हो जाते हैं और तीसरी ही दही, गुडके पिण्ड समान अवस्थाको धारण कर लेते हैं। सिद्धांत ग्रन्थोंमें कहा है कि 'बन्धं पडि एयत्तं लक्खणदो हवदि तस्स णाणत्तं ' बन्धकी अपेक्षासे दोनों द्रव्य एक हैं और लक्षणसे या निश्चय नयसे दोनों न्यारे न्यारे द्रव्य हैं। सिद्ध भगवान् शरीर न होनेके कारण न तो उपदेश देते हैं और वे उपदेशका श्रावण प्रत्यक्ष भी नहीं करते हैं। केवल ज्ञान द्वारा सबके ज्ञाता हैं। अतः शरीर सहित संसारी जीव ही उपदेश सुननेके पात्र हैं। संसारी जीवके कान, मन, संकेतको ग्रहण करना, आदि विद्यमान हैं । यों जैनसिद्धान्तके अनुसार चैतन्यविशिष्ट शरीरके लिए तत्त्वोपदेश करना होता है, यह हमको इष्ट है। अतः आप चार्वाक सिद्धका ही साधन कर रहे हैं [ यह दोष हुआ ] । हां ! निश्चयनयसे विचार किया जावे तब तो चैतन्य ( आत्मा ) के लिये ही तत्त्वोपदेश है । जो मृतशरीर चैतन्यसे रहित है उसकेलिये उपदेश सुननेकी योग्यता नहीं घटित होती है । अतः जीवके लिये ही तत्त्वोपदेश उपयोगी है। तभी तो जर्जावका आदिमें प्रयोग किया है। यदि आप चार्वाक दूसरा पक्ष लेंगे यानी चैतन्य और शरीरको अभिन्न मानेंगे तब तो कायसे अभिन्न मान लिये गये चैतन्यको ही कायपना होनेके कारण काय ही तत्त्वोप