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________________ १०२ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके करना भी आवश्यक हुआ। और उन पूर्वोक्त सर्व तत्त्वोंके आश्रय ( आधार ) हो रहे जीव, अर्जाव तत्त्व भी श्रद्धान करने योग्य हैं । क्योंकि बन्ध और उस बन्धका क्षय होना रूप मोक्ष ये दोनों तत्त्व दोमें ठहरते हैं । अर्थात् जो व्यासज्यवृत्ति धर्मसे अवच्छिन्न पदार्थ होते हैं, वे संयोग, द्वित्वसंख्या, त्रित्वसंख्या, बन्ध, विभाग, पृथक्त्व, मोक्ष आदि पदार्थ दो आदि पदार्थोंमें रहते हैं, अकेलेमें नहीं। जैसे कर्म, नोकर्मके दूर हो जानेसे आत्माकी मोक्ष हुयी है वैसे ही आत्माके दूर हो जानेसे कर्म नोकर्मकी भी मोक्ष हो गयी है । कर्म, नोकर्म भी अपनी बन्ध अवस्थाकी परिणतियोंको छोडकर अन्य अबंध अवस्थाकी परिणतियोंमें आ गये हैं। पीछे कुछ समयोंके बाद भले ही निमित्तोंके द्वारा आहारवर्गणा, भाषावर्गणा, तेजो वर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा रूप परिणति कर चुकनेपर अन्य आत्माके योगबलसे आकर्षित होकर पुनः कर्मनोकर्म रूप हो जावें । किन्तु कुछ समयोंतक वे पुद्गलद्रव्य भी मोक्ष अवस्थाको प्राप्त हो गये हैं । मणि या सुवर्णसे जो मल दूर हो जाता है उसका भी छुटकारा हुआ कहना चाहिये । जड पुद्गलमें सुख और ज्ञानके न होनेसे उनके मोक्ष होनेकी कोई प्रशंसा नहीं समझी जाती है । दूसरी बात यह भी है कि उन पुद्गलोंके अन्तरंगमें बंधने योग्य पांच वर्गणायें रूप बननेकी शक्ति विद्यमान है । थोडी देर पीछे वे पुनः बन्धने योग्य हो जा सकते हैं । अतः ऐसी क्षणिक मोक्षके प्राप्त करनेमें कोई सार नहीं है । बन्ध जैसे दो जीव अजीव ( पुद्गल ) पदार्थोंमें रहता है, मोक्ष भी वैसे ही उन दोनोंमें रहती है । संयोग और विभाग दोमें रहते हैं, जैसे भूतलमें घटका संयोग है, वह संयोग अनुयोगिता सम्बन्धसे भूतलमें रहता है, और प्रतियोगिता सम्बन्धसे घटमें रहता है । षष्ठी विभक्तिका अर्थ प्रतियोगिता है, सप्तमी विभक्तिका अर्थ अनुयोगिता होता है । यद्यपि जैनसिद्धान्तके अनुसार दो द्रव्योंका एक गुण नहीं होता है । किन्तु संयुक्त या बद्ध अवस्था हो जानेपर दो गुणोंका या दो पर्यायोंका एकपनेसे उपचार कर दिया गया है। दो पत्रोंके बीचमें लगा दिया गया गोंद दो अंशोंसे युक्त है, वह पीठकी ओरसे एक पत्रपर चुपटा है और छातीकी ओरसे दूसरे पत्रसे चुपटा रहता है। जैन मतमें संयोगकी अपेक्षा विभागका क्रम नैयायिकोंसे निराला है । बन्ध और मोक्ष दो में रहते हैं। अतः जीव अजीव ये दोनों तत्त्व भी श्रद्धान करने योग्य हैं । इन सातोंसे अतिरिक्त अन्य पदार्थ श्रद्धान करने योग्य नहीं है । निष्फल हो जानेसे ( हेतु )। इस प्रकार सात ही तत्त्वोंको कहने सूत्रकार श्री उमास्वामी महाराजका मन्तव्य यानी स्वरस यों है। ___ ननु च पुण्यपापपदार्थावपि वक्तव्यौ तयोर्बधव्यत्वाद्वन्धफलत्वाद्वा तदश्रद्धाने बन्धस्य श्रद्धानानुपपत्तेरसम्भवादफलत्वाच्चेति कश्चित्, तदसदित्याह: यहां कोई और शंका करता है कि जब मुमुक्षुको मोक्षके उपयोगी तत्त्वोंका ही श्रद्धान करना आवश्यक है तो पुण्य और पाप दो पदार्थ भी प्रकृत सूत्रमें कहने चाहिये। क्योंकि वे दोनों ही पदार्थ बन्ध होने योग्य हैं और बन्धके फल भी हैं। यदि उनका श्रद्धान न किया जावेगा तो पूरे बन्ध
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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