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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः धर्म, तीन गुप्ति आदि जीवके भेदोंसे तथा अणु, संख्यातवर्गणा, · असंख्यातवर्गणा आदि पुलके भेदोंके साथ चार धर्म आदिकोंको मिलादेनेपर सौ, दो सौ भी भेद हो सकते हैं । अतः दो, तीन, चार तथा आठ, तीस, सौ आदि मध्यम भेदोंको टालकर सात ही प्रकार के तत्त्व बतलाना कुछ रहस्य रखता है । वास्तवमें मोक्षके अभिलाषुक शिष्यको मोक्षके उपयोगी इन सात तत्त्वोंका ही श्रद्धान करना चाहिए । विनीत शिष्यको मोक्षके लिए ये सात तत्त्व ही अपेक्षित हैं । इन सात प्रकारके तत्त्वोंसे भिन्न निरर्थक तत्त्वोंका श्रद्धान करना उपयोगी नहीं है । यही सूत्रकारका हार्दिक अभिप्राय है । ९९ प्रकृत्यादयः पञ्चविंशतिस्तत्त्वमित्यादिसंख्यान्तरनिराचिकीर्षयापि संक्षेपतस्ताव - देकं द्रव्यमनन्तपर्यायं तत्त्त्रमित्येकाद्यनन्तविकल्पोपायादौ तत्त्वस्य मध्यमस्थानाश्रयमपेक्ष्य विनेयस्य मध्यमाभिधानं सूरेः संक्षेपाभिधाने सुमेधसामेवानुग्रहाद्विस्तराभिधाने चिरेणापि प्रतिपत्तेरयोगात् । सर्वानुग्रहानुपपत्तिरित्येके । १ प्रकृति, २ महान्, ३ अहंकार, ४ स्पर्शन इन्द्रिय, ५ रसना, ६ घाण, ७ चक्षुः, ८ श्रोत्र, ९ मन, १० वचनशक्ति [ जबान ], ११ हाथ, १२ पात्र, १३ गुदास्थान, १४ जननेन्द्रिय, १५ शद्वतन्मात्रा, १६ स्पर्शतन्मात्रा, १७ रूपतन्मात्रा, १८ रसतन्मात्रा, १९ गन्धतन्मात्रा, २० आकाश, २१ वायु, २२ तेज, २३ जल, २४ पृथिवी, और २५ पुरुष [ आत्मा ] ये पच्चीस तत्त्व कपिल करके माने गये हैं । तथा द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, परतन्त्रता, शक्ति और नियोग ये आठ तत्त्व प्रभाकर मीमांसकोंने इष्ट किये हैं | नवीन प्रभाकर तो परतन्त्रताके स्थानपर समवाय और नियोगके स्थानपर संख्याको तत्त्व मानते हैं । इत्यादि प्रकारसे अनेक प्रतिवादियों की दूसरी दूसरी तत्त्वसंख्याओंके निराकरण करनेकी अभिलाषा से भी आचार्य महाराजने सात तत्त्वों की - इयत्ता करनेवाले सूत्र कहा है । सबसे प्रथम यद्यपि अन्य वादियोंकी संख्याका निराकरण अति संक्षेपसे अनन्तपर्यायरूप द्रव्य ही एक तत्त्व है, इससे भी हो सकता है । तथा अतिविस्तारसे अनन्त भेदोंका निरूपण करना अतीव दुस्साध्य कार्य है, किन्तु उपायसे होसकता है । और मध्यके दो, तीन, आठ, नौ, सौ, पांचसौ, आदि तत्त्वोंके विकल्प करने के उपाय हैं । इनसे भी अन्य मतोंकी तत्त्वसंख्याका खण्डन होसकता था, ऐसा होते हुए भी तत्त्वके मध्यमस्थानके आश्रयकी अपेक्षासे शिष्य के प्रति आचार्यका मध्यमरूप सात ही प्रकारसे कथन करना समुचित है । दो, छह, आठ, सौ भी कह देते तो भी पुनः कटाक्ष होते रहते । अतः झगडेका अन्त करनेके लिये सात तत्त्वोंका निरूपण किया है । अत्यन्त संक्षेपसे कहने पर तो अधिक प्रतिभाशाली थोडेसे विद्वानोंका ही उपकार होता । और अधिक विस्तारसे कथन करनेपर लाखों, करोडों, असंख्य तत्त्वोंकी प्रतिपत्ति चिरकालसे भी नहीं होसकती थी, और होती भी तो कतिपय जीवोंको ही तत्वोंकी प्रतिपत्ति होती, सम्पूर्ण मुमुक्षु जीवोंका उपकार होना नहीं बन सकता था, और सात प्रकारके तत्त्वोंका निरूपण करनेसे तो सभी
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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