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इस खंडके करीब ६५० पृष्ठोमें द्वितीय आन्हिक प्रकरणपर्यतका विषय अर्थात् आठ सूत्रों का व्याख्यान आचुका है । इसमें जैनदर्शन के रहस्यको ग्रंथकारने कूट कूटकर भर रखा है। आगामी खंड सम्यग्ज्ञानका प्रकरण प्रारंभ हो जायगा ।
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इस खंड परिशिष्ट में हमने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारांतर्गत श्लोकोंकी सूची अकारानुक्रमणिका क्रमसे दी है । प्रथमखंडमें आये हुए श्लोकोंकी सूची देकर बादमें द्वितीय खंडके श्लोकोंकी सूची दी है। इससे श्लोकोंके अन्वेषण में विद्वानोंको सहायता मिलेगी ऐसी आशा है । टीकाकारके प्रति कृतज्ञता
श्री तर्करत्न, सिद्धांतमहोदधि पं. माणिकचंदजी न्यायाचार्य महोदय के प्रति हम इस अवसर में भी कृतज्ञता व्यक्त किये विना नहीं रह सकते जिनके लगातार बीसों वर्षोंके परिश्रमके फलस्वरूप यह जटिल ग्रंथ सबके लिए सुगम और सरल बन गया है । आपने स्थान स्थानपर तात्विक गुत्थियों को बहुत ही हृदयंगमरूपसे सुलझाया है। कई स्थानोंपर सुंदर उदाहरणों को देते हुए विषयको स्पष्ट किया है । कितने ही स्थानोमें विषयको विशद करके समझाया है । कहीं कहीं न्यायप्रिय विद्वान् न्यायाचार्यजीकी कथनकलासे आनंदतुंदिल हुए बिना नहीं रह सकते हैं । इस प्रकार माननीय पंडितजीने इस ग्रंथराजकी सुबोधिनी टीका लिखकर जैनदर्शन के प्रसार में बडी सहायता की है, जिसे चिरकालतक तत्वजिज्ञासु पाठक विस्मृत नहीं कर सकते हैं। उनकी प्रबल इच्छा है कि समग्र ग्रंथ शीघ्र ज्ञानपिपासुवोंके सन्मुख उपस्थित होकर वे इसका आस्वादन लेवें ! उनकी पुण्यमय भावनाके प्रति हम उनको धन्यवाद - प्रदानके सिवाय क्या कर सकते हैं ! अध्यक्ष - महोदयका उत्साह
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प्रथमखंड में ही हम निवेदन कर चुके हैं कि इस ग्रंथराजके प्रकाशनका बहुभाग श्रेय श्रीआचार्य कुंथूसागर ग्रंथमालाके सुयोग्य अध्यक्ष और जैनसमाजके प्रधान कर्णधार श्रीमाननीय धर्मवीर रा. ब. केप्टन सर सेठ भागचंदजी सोनी ओ. बी. ई. को है क्योंकि उन्हीकी प्रधान सहायता और प्रेरणासे इस ग्रंथका प्रकाशन हो रहा है। श्री सरसेठ साइबके इस साहित्यप्रेमकी जितनी भी प्रशंसा की जाय थोडी है । उनकी प्रबल कामना है कि यह ग्रंथराज यथाशीघ्र प्रकाशित होकर जैनदर्शनका रहस्य सर्वसाधारणके सामने आजावे और जैनन्यायवादकी महत्ता विद्वत्संसारको अवगत हो जावे। श्री धर्मवीरजीकी धारणा है कि धर्मकी यथार्थप्रभावना धार्मिकोंके निर्माण में है । सिद्धांत के तत्वोंको जितने अंशमें हम निर्दोष सिद्ध कर लोकके सामने रखेंगे उतने ही प्रमाणमें लोकमें धर्मश्रद्धाकी वृद्धि होगी । निर्दोष तत्वपर यथार्थ श्रद्धान करनेसे ही आत्मसाधनाका मार्ग मिलता है । वही इस संसार में विजयी होता है ।
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इस ग्रंथराजका प्रमुख प्रमेय यही है । इसलिए श्री सरसेठ साहबकी प्रबल कामना है कि ग्रंथराज जल्दी से जल्दी प्रकाशित होकर विश्वके लिए तत्यबोध करानेमें सहायक हो। आपकी पुण्यमयप्रेरणा