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(५) ख्याति और प्रतिष्ठाके साथ विद्वत् समाजपर छाप बैठी है । जहांतक मैं समझता हूं, पंडित माणिकचन्द्रजी न्यायाचार्य इस समय बहुत ही ऊंची कोटिके विद्वान् और तत्वमर्मज्ञ हैं । . जिस ग्रंथमालासे इस महाग्रंथका प्रकाशन हुआ है, उसके अध्यक्ष दि० जैन समाजके धार्मिक यशस्वी नेता सर सेठ भागचन्दजी सोनी हैं। आपने उक्त ग्रंथ परमपूज्य आचार्यवर्य श्री १०८ श्री शांतिसागरजी महाराजको समर्पित किया है । यह ग्रंथ श्री आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमालाका ४१ वां पुष्प है । ग्रंथकी आदिमें संपादकीय वक्तव्य भी पढने योग्य है । इस प्रथम खण्डमें पहले अध्यायका पहला आह्निक मात्र है, जो बडे आकारके अर्थात् २०४३०८के ६१२ पृष्ठोंमें पूर्ण हुआ है । ग्रंथका मुद्रण भी सुन्दर और अच्छी देखरेखमें हुआ है। विद्वानोंके लिए तो यह ग्रंथ हीरकहार-स्वरूप है ही, किन्तु प्रत्येक मन्दिर और सरस्वतीभवनमें भी सुरक्षणीय है।
पंडित माणिकचन्दजी न्यायाचार्य महोदयने इस महा ग्रन्थराजका अनुवाद हिंदीमें करके अनुपम लोकोपकार किया है, वह कृतज्ञजनता द्वारा भुलाया नहीं जासकता । इसी प्रकार उक्त ग्रंथमालाका भी, जिसने कि इसका प्रकाशन भार उठाया है।
-इंद्रलाल शास्त्री. इससे हमारे स्वाध्याय प्रेमी बंधु अच्छी तरह समझ सकेंगे कि इस ग्रंथके संबंधमें विद्वानोंके हृदयमें कितने आदरका स्थान है, और वे किस उन्नत दृष्टिसे इसे देखते हैं । प्रकृत ग्रंथका विषय.
ग्रंथके प्रथम खंडमें मोक्षके उपायके संबंधमें अत्यंत तर्कशुद्ध-पद्धतिसे विचार किया गया है। विषयका स्पष्टीकरण इतना विस्तृत और सुलभशैलीसे किया गया है कि करीब ६५० पृष्ठोंके प्रथम खंडमें केवल प्रथमसूत्रका ही व्याख्यान आ सका है । इसीसे इस ग्रंथराजकी महत्ता स्पष्ट है । मोक्षप्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही प्रधान कारण हैं। इनके अतिरिक्त किसी भी एकांतसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती है । इस विषयको युक्ति, आगम और अनुभवके बलसे श्रीमहर्षि विद्यानंदस्वामीने प्रथमसूत्रके व्याख्यानमें अच्छीतरह सिद्ध किया है । इस प्रकरणके स्वाध्यायसे स्वाध्यायप्रेमियोंको रत्नत्रयरूपी समुद्रमें प्रवेश कर आलोढन करनेका आनंद आ जायगा, इसमें कोई संदेह नहीं है।
इस दूसरे खंडमें पुनश्च ग्रंथकारने सम्यग्दर्शनका स्वरूप, भेद, अधिगमोपाय, तत्वोंका स्वरूप और भेद, निक्षेपोंका कथन, निर्देशादि पदार्थविज्ञानोंका विस्तार, सत्संख्या क्षेत्रादिक तत्वज्ञान के साधन आदिपर यथेष्ट प्रकाश डालते हुए द्वितीयआन्हिकपर्यंत ग्रंथके विषयोंका विवेचन किया है। इस प्रकरणमें सम्यग्दर्शनके संबंधमें बहुत विस्तारके साथ कथन है। इतना व्यापक विचार अन्यत्र मिलना दुर्लभ है । फिर भी विद्यानंदस्वामीकी दृष्टिसे यह संक्षेप कथन है । न मालुम विस्तार होता तो क्या होता । काश ! उनकी अगाधविद्वत्ता किस प्रकारकी होगी ? विद्वत्संसारके प्रति उन्होंने अपनी तपश्चर्या के बहुमूल्य समयोंको बचाकर जो उपकार किया है वह न भूतो न भविष्यति है।