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________________ ८८ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके सत्तादी अटुंता छण्णवमज्झाय संजदा सव्वे । अंजलि मौलिय हत्थो तियरणसुद्धे णमंसामि ॥ ६३२ ॥. (गोम्मटसार जीवकाण्ड ) प्रसन्नताकी बात है कि हम आप मनुष्योंमें सम्यग्दृष्टियोंकी संख्या हमारी वियत संख्याके संख्यातवें भाग ही है । अर्थात् ७९ उन्यासी आदि उन्तीस अंक प्रमाण ७९२२८१६२५१, ४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ सम्पूर्ण पर्याप्त मनुष्योंमें मात्र ( ७२१९९९९९९७ ) सात अरब इक्कीस करोड निन्यानवे लाख निन्यानवें हजार नौसौ सत्तानवे. मनुष्य सम्यग्दृष्टि हैं । जो कि अपनी संख्याके वर्तमान इकाई, दहाई, को आदि लेकर दश संखतक प्रसिद्ध होरही संख्यानुसार सौसंखवें भाग हैं । भावार्थ-कुल इकाई, दहाई, सैकडा, हजार, दशहजार, लाख, दश लाख, करोड, दश करोड, अरब, दश अरब, खरब, दशखरब, नील, दशनील, पदम, दश पदम, संख, दश संख, इस गणनाके अनुसार स्थूलरूपसे सौसंख मनुष्योंमें केवल एक मनुष्य सम्यग्दृष्टि है। अथवा सत्ताईस अंक प्रमाण मनुष्य माने जांय तो एक संख मनुष्योंमें एक सम्यग्दृष्टि पाया जायगा । अवगाहना शक्त्यनुसार उन्तीस अंक प्रमाण, या सत्ताईस अंक प्रमाण मनुष्य इस पैंतालीस लाख योजनके नरलोकमें पाये जाते हैं। भरतक्षेत्रसंबंधी आर्यखंडके कई हजारवें भागमें यह वर्तमान वैज्ञानिकोंका समझा हुआ, यूरोप, एसिया, अमेरिका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया तथा और भी अन्य छोटे प्रदेश, अथवा समुद्रीय जल भागसे घिरा हुआ भूमण्डल है । इसमें मात्र कई अरब मनुष्य हैं। एसिया महादेशके इस भारतवर्षमें वीर निर्वाण संवत् २४५८ में जैनोंकी संख्या तेरह लाख मानी जाती है । इसमें श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तथा बालक, बालिकायें, और मिथ्यादृष्टि, सप्तव्यसनसेवी आदि भी सम्मिलित हैं । इनमें यथार्थ तत्त्वोंका श्रद्धान करनेवाले, सच्चे देव, शास्त्र, गुरुकी प्रतीति करनेवाले, भेदविज्ञानी, सम्यग्दृष्टि कितने हैं ? इसका विचार आवश्यक है। श्रद्धानं परमार्थानामाप्ताममतपोभृताम् । त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ _ (स्वामी समन्तभद्राचार्यः) . सर्वज्ञदेवने पच्चीस दोषोंको टालकर परमार्थ आप्त, आगम, और गुरुओंका अष्टांग श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहा है । अनंतानुबंधी चार, और दर्शनमोहत्रिक, के उपशम, क्षय, या क्षयोपशमसे होनेवाली आत्मविशुद्धिको सम्यग्दर्शन माना है। जो कि सूक्ष्म है, अव्यक्त है, और प्रत्यक्षज्ञानियोंके गम्य है। हां, प्रशम, संवेग, अनुकंपा, आस्तिक्य, अथवा संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्ह, प्रशम, जिनभक्ति, वात्सल्य, अनुकंपा गुणोंसे अन्वित हो रहा सरागसम्यक्त्व तो स्वपरसम्वेध भी है। . .
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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