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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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स्वाभाविकपने ( निसर्गज ) एकान्तका निराकरण किया है । कारणोंके विना मोक्ष, सुख, सम्यग्दर्शन, आदि कोई भी कार्य निष्पन्न नहीं होता है । सम्यग्दर्शनके अन्तरंग और बहिरंग कारणोंका व्याख्यान करके अनुमानके द्वारा उपराम आदिकको सिद्ध किया है । मद्य आदिका दृष्टान्त देकर पुद्गल द्रव्यके बने हुए कर्मोकी शक्तियोंका नाश हो जाना बतलाया है । विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावरूप निमित्तोंसे अनेक योग्य नैमित्तिक भाव उत्पन्न हो जाते हैं । जिनबिम्ब, तीर्थस्थान आदि कारण भी आत्मामें छिपे हुए अनेक गुणों को व्यक्त कर सकते हैं । निकटभव्य, दूरभव्य, अभव्य, जीवोंको सुवर्ण पाषाण, और अन्धपाषाणके दृष्टान्तसे अनुमान द्वारा सिद्ध किया है । पारिणामिकभाव रूप भव्यपना सिद्ध अवस्था उत्पन्न होनेके पूर्व समयतक बना रहता है । पीछे नहीं, यह बात स्वयं सूत्रकारने दशवें अध्यायमें कही है । इस प्रकार निसर्ग और अधिगमसे उत्पन्न हुए श्रद्धान गुणकी प्रतीति कर लेनी चाहिये ।
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सम्यग्दर्शनकी दुर्लभता
( टीकाकार द्वारा )
इस परिवर्तन शील अनादि संसारमें कर्मफल चेतनाके वश होकर अक्षय अनंतानंत जीव नाक, निगोद आदि अवस्थाओं और जन्म, जरा, मृत्यु, भूख, रोग, इष्टवियोग, अनिष्टसंयोगज आदि अनेक विपत्तियोंको प्रतिक्षण भुगत रहे हैं । उनमें बहुभाग प्राणी तो दुःखसे छूटने के उपायोंको ही नहीं जानते हैं। हां, मात्र असंख्याते विचारशाली जीव दुःखसे छूटकर वास्तविक सुखको प्राप्त करनेके लिये अभिलाषुक होरहे प्रतीत होते हैं ।
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अनुभव करनेपर परीक्षित होता है कि यथार्थ सुख तो कर्म, नोकर्मके सम्बन्धसे वियुक्त हो रही परमात्म अवस्थामें है । और मोक्षकी प्राप्तिका अव्यर्थ कारण सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रोंकी परिपूर्णता हो जाना है ।
सबसे प्रथम माने गये सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होना जीवोंको अत्यन्त दुर्लभ है । यद्यपि तत्त्वज्ञान और चारित्र भी अतीव दुष्प्राप्य हैं । किन्तु अर्धपुद्गलपरिवर्त्तन नामक अनन्तवर्षो के छोटेसे कालमें ही मोक्ष सुखमें धर देनेवाले सम्यग्दर्शनकी दुर्लभता बढी चढी है । अतः आज हम इसीपर जिनागमानुकूल थोडासा प्रतिपादन करते हैं । 4
नारकी, देव, और संज्ञी तिर्यचोंमें असंख्यासंख्यात जीव सम्यग्दृष्टि हैं, जो कि उनकी नियत संख्या के असंख्यातवें भाग हैं, यानी तीन गतियोंमें प्रत्येकमें असंख्याते, असंख्याते जीवोंके पीछे केवल एक एक ही सम्यग्दृष्टि जीव आंकडोंमें बैठता है । हम तीनों गतियोंके सम्यग्दृष्टियोंका विचार नहीं करके केवल मनुष्यगति सबन्धी जीवोंके सम्यग्दर्शनका ही विचार चलाते हैं ।
तेरस कोडी देसे बावण्णा सासणे मुणेदव्वा । मिस्साविय तद्दुगुणा असंजदा सत्तकोडिसयं ॥ ६४१ ॥